दो होते हुए भी एक है केले का पत्ता, जानिए राम और हनुमान की अनोखी कहानी
भगवान राम और हनुमान जी का संबंध अनोखा है. दोनों का प्रेम अटूट है. यानी राम और बजरंगल बली के दो शरीर होते हुए भी आत्मा एक है. इसके बारे में एक दिलचस्प कथा कही जाती है.
भगवान श्रीराम जब रावण को सेना सहित पराजित करके सीता जी को लेकर वापस अयोध्या पहुंचे. जहां उनके लौटने की ख़ुशी में एक बड़े भोज का आयोजन हुआ. वानर सेना के सभी लोग भी आमंत्रित थे. लेकिन वे सभी आखिर थे तो जंगलों में रहने वाले वानर ही न ? उन्हें सामान्य सामाजिक नियमों की पहचान नहीं थी.
इसलिए वानरराज सुग्रीव जी ने उन सब को खूब समझाया. उन्होंने कहा - देखो, यहाँ हम मेहमान हैं और अयोध्या के लोग हमारे मेजबान . तुम सब यहाँ खूब अच्छी तरह शिष्टाचार के साथ पेश आना. जिससे कि हम वानर जाति वालों को लोग शिष्टाचार विहीन न समझें, इस बात का ध्यान विशेष रखना.
सभी वानरों ने अपने राजा की बात मानी और अपने समाज का मान रखने के लिए तत्पर हुए. तभी एक वानर आगे आया और हाथ जोड़ कर वानरराज सुग्रीव से कहने लगा "प्रभो - हम प्रयास तो करेंगे कि अपना आचार व्यवहार अच्छा रखें, किन्तु हम ठहरे बन्दर . कहीं भूल चूक भी हो सकती है. तो हो सकता है कि अयोध्या वासियों के आगे हमारी छवि अच्छी नहीं रहे. इसके लिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप किसी को हमारा अगुवा बना दें, जो न सिर्फ हमें मार्गदर्शन देता रहे, बल्कि हमारे बैठने आदि का प्रबंध भी सुचारू रूप से चलाये. कहीं किसी वस्तु के लिए वानर आपस में लड़ने भिड़ने लगें तो हमारी छवि धूमिल हो सकती है."
उस बुद्धिमान वानर की बात सुनकर वानरों में सबसे ज्ञानी और श्री राम के सर्वप्रिय तो हनुमान को सभी का अगुवा बना दिया गया.
भोज के दिन श्री हनुमान सबके बैठने वगैरह का इंतज़ाम करते रहे. पूरी वानर सेना को ठीक से बैठने के बाद हनुमान जी जब श्री राम के समीप पहुंचे, तो श्री राम के उन्हें बड़े प्रेम से कहा कि तुम भी मेरे साथ ही बैठ कर भोजन करो.
अब हनुमान पशोपेश में आ गए. उनकी योजना में प्रभु के बराबर बैठना तो था ही नहीं. वे तो अपने प्रभु के भोजन ग्रहण करने के बाद ही प्रसाद के रूप में भोजन ग्रहण करने वाले थे. उनके लिए ना तो बैठने की जगह ही थी और ना ही भोजन परोसने के लिए केले का पत्ता था.
इसीलिए हनुमान बेचारे पशोपेश में थे. वे ना तो प्रभु की आज्ञा टालने का साहस कर सकते थे और ना उनके साथ खाने बैठ सकते थे. लेकिन प्रभु तो भक्त के मन की बात जानते हैं ना ? तो वे जान गए कि मेरे हनुमान के लिए केले का पत्ता नहीं है और ना ही स्थान है. तब उन्होंने अलौकिक कृपा से अपने साथ हनुमान के बैठने के लिए स्थान बढ़ा दिया. (जिन्होंने इतने बड़े संसार की रचना की हो उन्होंने ज़रा से और स्थान की रचना कर दी). लेकिन प्रभु ने केले का एक अतिरिक्त पत्ता नहीं बनाया.
इसकी बजाए भगवान ने कहा "हे मेरे प्रिय अति प्रिय छोटे भाई और पुत्र की तरह दुलारे हनुमान. तुम मेरे साथ मेरे ही केले के पत्ते में भोजन करो. क्योंकि भक्त और भगवान एक ही हैं. कोई हनुमान को भी पूजे तो मुझे ही प्राप्त करेगा (भगवान का यही कथन अद्वैत यानी एकेवरवाद का मूल दर्शन है.)"
इस पर श्री हनुमान जी बोले, "हे प्रभु आप मुझे कितने ही अपने बराबर बताएं, मैं कभी आप नहीं होऊँगा, ना तो कभी हो सकता हूँ और ना ही होने की अभिलाषा है. (यह है द्वैत, यानी जीव और ब्रह्म के बीच की मर्यादा). मैं सदा सर्वदा से आपका सेवक हूँ, और रहूंगा. आपके चरणों में ही मेरा स्थान था और रहेगा. मैं आपके साथ खा ही नहीं सकता."
जब हनुमान जी ने प्रभु के साथ भोजन करने से इनकार कर दिया. तब श्री राम ने अपने सीधे हाथ की मध्यमा अंगुली से केले के पत्ते के मध्य में एक रेखा खींच दी. जिससे वह पत्ता एक भी रहा और दो भी हो गया.
एक भाग में प्रभु ने भोजन किया और दूसरे अर्ध में हनुमान जी को भोजन कराया. अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा के ऐक्य और द्वैत दोनों के चिन्ह के रूप में केले के पत्ते आज भी एक होते हुए भी दो हैं और दो होते हुए भी एक हैं. यानी द्वैत में अद्वैत.
यही सृष्टि की व्यवस्था है. जो ब्रह्म और जीव के संबंध यानी द्वैत में अद्वैत को दर्शाती है. इसे समझ लिया तो जीवन का उद्धार तय है. इसका मूर्त प्रतीक केले का पत्ता है.
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