नई दिल्लीः मलमास के पावन महीने में भगवान विष्णु का ध्यान करना अत्यंत उत्तम है. यह मास अधिकमास में खुद ही श्रीहरि का एक स्वरूप भी है, जिसे स्वयं ही भगवान अपने श्रीमुख से मान्यता दी है. जी हिंदुस्तान अधिकमास के मौके पर प्रतिदिन एक विष्णु मंदिर के दर्शन करा रहा है.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING


इसी कड़ी में जानिए पुष्कर तीर्थ (राजस्थान) स्थित श्रीवराह मंदिर के बारे में. 


भगवान वराह को है समर्पित
सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान मे सतयुग में वराह का अवतार लिया था. इस अवतार में उन्होंने असुर हिरण्याक्ष का वध कर उसे मोक्ष दिया और देवी पृथ्वी की रक्षा की. उन्होंने सागर तल में छिपाई गई पृथ्वी को बाहर निकला और प्राणियों की रक्षा की.



भगवान के इसी महत्वपूर्ण अवतार को समर्पित यह विशेष मंदिर श्रद्धालुओं को मानवता के कल्याण का वरदान देता है.  


यहां है स्थापित
प्राचीनता की दृष्टि से देखें तो करीब 900 वर्ष पुराने वराह मंदिर का निर्माण अजमेर के चौहान शासक अर्णीराज (अनाजी चौहान) ने कराया था. पुष्कर सरोवर के वराह घाट के पास स्थित वराह चौक से एक रास्ता बस्ती के भीतर इमली मोहल्ले तक जाता है, जहां यह विशाल मंदिर स्थापित है.



मंदिर का वर्तमान स्वरूप 1727 ईस्वीं का है. इसके पहले यह और भी भव्य और दिव्य हुआ करता था. 


यह है मान्यता
करीब 30 फुट ऊंचा मंदिर, चौड़ी सीढि़यां तथा किले जैसा प्रवेश द्वार आकर्षण का केन्द्र है. कहा जाता है कि कभी मंदिर का शिखर 125 फीट ऊंचा था, जिस पर सोन चराग (स्वर्ण दीप) जलता था. यह तब की दिल्ली तक दिखाई देता था. इस दीपक में एक मन घी जलने की क्षमता थी. मंदिर पुष्कर के पाराशर ब्राह्मणों की आस्था का केन्द्र बिंदु है. 


यहां भी आ पहुंचा था औरंगजेब
एक समय में मुगलशासक औरंगजेब का अत्याचार भारत के लगभग हर मंदिर पर टूटा. वराह मंदिर भी इससे अछूता नहीं रहा है. औरंगजेब के काल में उसके आक्रमण का जवाब जोधपुर के राजा अजीत सिंह ने बड़ी ही वीरता के साथ दिया. एक घमासान य़ुद्ध हुआ जिसमें हजारों सैनिक मारे गए,



लेकिन खून का प्यासा औरंगजेब मंदिर पर चढ़ ही आया. उसने इसके कई हिस्सों को तोड़ दिया. 
वराह मंदिर औरंगज़ेब और जोधपुर के राजा अजीत सिंह के बीच हुए घमासान युद्ध का भी गवाह रहा है. 


ऐसा दिव्य है मंदिर के भीतर का दृष्य 
मंदिर में प्रवेश करते ही धर्मराज की प्रतिमा दिखाई देती है. प्रतिमा पर राई की कटोरी चढ़ाने की परम्परा है. दांयी ओर गरूड़ मंदिर है. धर्मराज की प्रतिमा के बाद भगवान की बैठक है. इस बैठक में हर वर्ष शरद पूनम के दिन लक्ष्मी−विष्णु की युगल प्रतिमा विराजमान की जाती है. मुख्य मंदिर में विष्णु के अवतार वराह भगवान की मूर्ति स्थापित है. मूर्ति के नीचे सप्त धातु से निर्मित करीब सवा मन वजन की लक्ष्मी−नारायण की प्रतिमा है. 


वराह नवमी को होता है भव्य प्रकटोत्सव
यहीं पर बूंदी के राजा ने सवा मन वजन का भाला भेंट किया था जो अब भी यहां रखा हुआ है. जलझूलनी एकादशी पर लक्ष्मी−नारायण की सवारी धूमधाम से निकाली जाती है. चैत्र माह में वराह नवमी के दिन भगवान का प्रकटोत्सव मनाया जाता है. जन्माष्टमी व अन्नकूट के अवसर पर उत्सव आयोजित किए जाते हैं.  मंदिर में विशेष कर चावल का प्रसाद चढ़ता है.