भगवान शिव और माता सती का विवाह बड़ी मुश्किल से संपन्न हुआ. क्योंकि सती के पिता दक्ष प्रजापति इस विवाह के पक्ष में नहीं थे. विवाह के बाद देवी सती कैलाश पर्वत पर आ गईं. तब शिवजी ने विवाहोपरांत उनसे कुछ उपहार मांगने के लिए कहा. जिसके जवाब में माता ने भगवान शिव से वह प्रश्न पूछा जिसे जान लेना हम सभी के लिए आवश्यक है. 


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सती भगवती ने भोलेनाथ से पूछा "हे परमेश्वर, आपकी भक्ति का उत्तम मार्ग क्या है?"


इसके जवाब में भगवान शिव ने भक्ति के दुर्लभ चिन्ह बताए. जिसे जानने से मनुष्य का उद्धार हो जाता है. 


शिवजी ने कहा- सगुण और निर्गुण दोनों ही मार्ग उत्तम हैं. कुछ लोग निर्गुण भक्ति को चिंतन भी कहते हैं. भक्ति के नौ प्रमुख प्रकार कहे गए हैं.


1.श्रवण यानी सुनना- स्थिर आसन की मुद्रा में मेरा ध्यान करते, कथा कीर्तन को श्रद्धापूर्वक सुनते पुलकित होकर स्वयं को भुला देने की अवस्था में चले जाना.


2.कीर्तन- निर्मल मन से ऊंचे स्वर में मेरे दिव्यगुणों की महिमा अन्य को भी सुनाना.


3.स्मरण- अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए परेश्वर को सर्वव्यापी मान उसे मन से लगाए रखना


4.सेवन- सुबह जागने से सोने तक मन और इन्द्रियों से दुखियों-पीड़ितों की नियमित सेवा. भूखे को भोजन, बीमारों की सेवा, प्यासे को जल देकर, तन-मन-धन से पूर्णतः समर्पित होकर लोकसेवा करना.


5.दास्य- स्वयं को प्रभु का दास समझकर ऐसा आचरण करना जो प्रभु को प्रिय है। दासत्व में भाव होना चाहिए कि वह जो भी करेगा प्रभु का प्रिय करने के लिए करेगा.


6.अर्चन- षोडश (16) उपचारों द्वारा ईश्वर को पाद्य, अर्घ्य, प्रसाद आदि का समर्पण


7.वंदन- चित्त को एकाग्र करके हृदय से ध्यान और वाणी से गुणगान करते हुए आठों अंगों- मूर्धा(मस्तक), हनु(ठोढ़ी), वक्ष, उदर, दोनो भुजाएं और दोनों जंघाएं- को भूमि पर स्पर्श कराते हुए प्रणाम करना.


8.सख्य- ईश्वर द्वारा किए सभी अनुकूल या प्रतिकूल कार्यों को मंगलमय मानने का विश्वास. यदि कोई दुख मिला हो तो भी समझें कि उसके पीछे प्रभु की कोई हित की भावना छुपी होगी.


9.समर्पण- तन-मन-धन सर्वस्व प्रभु की प्रसन्नता के लिए समर्पित कर देना. लोकसेवा के किसी उद्देश्य को ईश्वर का कार्य मानकर उसके लिए तत्पर रहना. अपनी चिंता से मुक्त, दूसरों की चिंता में लगाना.


शिवजी बोले- देवी इन नौ प्रकारों में से किसी भी प्रकार को यदि मेरा भक्त साध ले तो मैं उसके वश में रहता हूं. मेरे भक्त का अनिष्ट करने की भावना रखने वाले को मैं स्वयं अपना शत्रु समझता हूं.