नई दिल्लीः महाभारत के एक छोटे से पात्र बर्बरीक की आज संसार में बहुत मान्यता है. उनकी वीरता और वचन पालन के कारण श्रद्धालु उन्हें श्रीकृष्ण के नाम से और उन्हीं के बराबर सम्मान देते हुए पूजते हैं. वैसे तो सीकर (राजस्थान) के खाटू गांव में साल भर बाबा के भक्त आते हैं, लेकिन फाल्गुन महीने में यहां पहुंचना उनके लिए खास होता है.


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इसी महीने की द्वादशी तिथि को वीर बर्बरीक ने श्रीकृष्ण को शीश दान किया था और हारे का सहारा की पदवी पाई थी. 


महाभारत देखने की जताई थी इच्छा
बर्बरीक शीशदान के लिए तो सहर्ष तैयार हो गए, लेकिन उन्हें दुख हुआ कि वह अपने पिता, दादा व अन्य पूर्वजों के किसी काम नहीं आ सके. उन्होंने श्रीकृष्ण से अपने उद्धार का तरीका पूछा साथ ही बताया  कि वह भी इस युद्ध में हिस्सा लेना चाहते थे, और इसे देखना चाहते थे.



लेकिन आपके ब्राह्मण वेश में शीश दान लेने के कारण मैं ऐसा नहीं कर पाउंगा इसलिए शोक कर रहा हूं. मैं अपने पूर्वजों को मृत्यु के बाद क्या मुंह दिखाउंगा?


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शीश दान का कारण बताया
श्रीकृष्ण बोले, दुख न करो बर्बरीक. वास्तव में यदि तुम शीश दान न करते तो अपने पूर्वजों के बिल्कुल काम नहीं आते. इसका कारण है तुम्हरा यह वचन. शुरुआत में तो तुम पांडव सेना से ही युद्ध करोगे, लेकिन वचन के कारण कौरव पक्ष को हारता देख उधर जा मिलोगे. इसके कारण फिर पांडव सेना हारने लगेगी.


ऐसा देखकर तुम वापस इधर आ जाओगे. यह क्रम चलता रहेगा और युद्ध का कोई निर्णय न निकल पाने के कारण धर्म स्थापना का कार्य नहीं हो सकेगा. इसलिए मुझे यह करना पड़ा. 


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और इस तरह बने बाबा खाटू श्याम
श्रीकृष्ण ने शीशदान लेकर उसे अमृत से सींचा और अमरबूटियों पर स्थिर कर कुरुक्षेत्र के पास सबसे ऊंची पहाड़ी पर रख दिया. वहां से बर्बरीक ने पूरा युद्ध देखा और अंत समय में जब पांडवों को विजय का अहंकार भी हो गया तो बर्बरीक ने ही निष्पक्ष और न्यायप्रिय होकर उनका अहंकार भी तोड़ा.



फागुन मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी को शीश दान करने कारण के यह समय बाबा श्याम के भक्तों का जत्था इस माह सीकर के पास खाटू गांव पहुंचता है और बाबा के दरबार में हाजिरी लगाता है. 


ऐसे बना बाबा का मंदिर
बाबा की मान्यता तो पहले से थी. किवदंती है कि सदियों पहले मंदिर वाले स्थान पर एक गाय स्वतः आकर खड़ी हो जाती थी और उसके स्तनों से दुग्ध धारा बहने लगती थी. यह देख लोग आश्चर्य करने लगे थे. एक दिन इस स्थान पर खुदाई की गई तो भूगर्भ से बाबा का शीश प्रकट हुआ.



उसी रात स्वप्न में खाटू नगर के राजा को मंदिर निर्माण की प्रेरणा मिली. इसके बाद उस स्थान पर मंदिर बनवाया गया और कार्तिक एकादशी को शीश मंदिर में विराजित कराया गया. यह तिथि वीर बर्बरीक के जन्म की थी. तबसे आज तक बाबा के इस दरबार में श्रद्धालु पहुंच रहे हैं. 


कहते हैं, आकार बदलते हैं बाबा
 मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कंवर ने बनावाया था.  मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर 1720 ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया. मंदिर ने इस समय अपना वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिस्थापित की गयी थी.


मूर्ति दुर्लभ पत्थर से बनी है. कहा जाता है कि जो भी इस मंदिर में जाता है उन्हें बाबा का नित नया रूप देखने को मिलता है. कई लोगों को तो इनके आकार में भी बदलाव नजर आता है.