नई दिल्लीः अमेरिका के काबुल से विदा होते ही सिर्फ 60 दिन के अंदर तालिबान ने अफगानिस्तान पर दोबारा हुकुमत कायम कर ली, इसका अंदेशा अमेरिका समेत नेटो देशों को था लेकिन उसके बाद भी अफगानिस्तान को इस संकट की घड़ी में छोड़ने की कई वजहें हैं.


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अब पहले से ज्यादा संगठित तालिबान
इस बार अफगानिस्तान में हालात 2001 की तरह नहीं है, 2001 में पूरी दुनिया तालिबान के शरिया कानून, कोड़े मारने की सजा, सड़कों पर कत्लेआम, महिलाओं पर पाबंदियों जैसे फरमानों को देखकर स्तब्ध थी . तालिबान के अत्याचार को लोग आजतक नहीं भूले हैं इसलिए 2021 में इसी तरह का डर पूरे अफगानिस्तान पर मंडरा रहा है, इस बार तालिबान पहले से ज्यादा ताकतवर और संगठित हो चुका है इसका सबूत दिखा, जब तालिबान लड़ाके काबुल के प्रेसिडेंशियल पैलेस में घुसे, उनके हाथों में सोवियत युग की एक-47 के साथ अमेरिकी सेना से लूटी असॉल्ट राइफिल दिख रही थी . 


स्थानीय पुलिस से मेलजोल
काबुल में तालिबान के कमांडर स्थानीय पुलिस के साथ मेल जोल बढ़ाते हुए दिखे . काबुल पर कब्जे से पहले ही तालिबान ने ऐलान कर दिया था कि वो सत्ता के हस्तांतरण के लिए आए हैं ना कि कब्जा जमाने के लिए . दुनिया को दिखाने के लिए कि तालिबान काबुल को रौंदने नहीं पहुंच हैं , वो शासन करने आए हैं इसलिए ऐलान किया गया कि तालिबान राज में महिलाओं के अधिकार की रक्षा की जाएगी. तालिबान ने कहा कि उनके राज में महिलाओं को अकेले घर छोड़ने की अनुमति होगी. उन्हें शिक्षा के लिए और काम करने की अनुमति होगी बर्शते वो हिजाब पहनें . 


मीडिया में छवि बनाने की कोशिश
इसके साथ ही तालिबान ने मीडिया के सामने अपनी नई छवि पेश करने में कोई कमी नहीं की, काबुल में लूटपाट ना हो इसका भी भरोसा दिया गया . तालिबान इस बार लादेन वाली गलती नहीं दोहराना चाहता है, वो दुनिया की नजर में विलेन नहीं दिखना चाहता है, इसकी बुनियाद 10 साल पहले ही रखी गई थी, तालिबान की रणनीति थी कि वो अपने सबसे बड़े दुश्मन अमेरिका को भरोसे में ले, इसलिए साल 2018 से ही अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत का सिलसिला जोर पकड़ने लगा.


 पिछले साल दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से वापस जाएगी और तालिबान उनपर हमला नहीं करेगा साथ ही साथ तालिबान ने भरोसा दिलाया था वो अल कायदा और दूसरे आतंकी संगठन को अपने यहां पनाह नहीं देगा, तालिबान पर भरोसा कर अमेरिका ने सेना वापसी शुरू कर दी . दोहा में अमेरिका, भारत से तालिबान की शांति वार्ता पर बातचीत का सिलसिला जारी रहा तो दूसरी तरफ तालिबान धीरे-धीरे अफगानिस्तान के छोटे छोटे इलाकों पर कब्जा करता रहा .


अमेरिका को पहले थी खबर?
अमेरिकी राष्ट्रपति के पास खुफिया रिपोर्ट थी कि अमेरिका के काबुल छोड़ते ही 90 दिन के अंदर अफगानिस्तान सरकार भरभरा कर गिर जाएगी, लेकिन इसके बावजूद भी नेटो ने अफगानिस्तान को तालिबान के हवाले करने का फैसला किया था . इन सबकी एक ही बड़ी वजह थी और वो थी कि अमेरिका ने तालिबान के खिलाफ 20 साल की जंग में बहुत कुछ खोया है, जंग के लिए 560 अरब डॉलर तक उधार लिए हैं, 12 हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिकों ने जान गंवाई, इसिलए अब लगता है कि अमेरिका दोबारा अफगानिस्तान का रुख नहीं करने वाला है .


हलांकि अमेरिका और यूरोपीय संघ के प्रतिनिधियों के साथ भारत ने साफ कर दिया है कि हथियार के दम पर सत्ता हासिल करने की कोशिश को मान्यता नहीं दी जाएगी . 


सऊदी अरब खामोश है
लेकिन इस्लामी दुनिया के बड़े सुन्नी देश सऊदी अरब खामोश है . सऊदी अरब, पाकिस्तान की मदद से अफगानिस्तान पर अपना प्रभुत्व बनाने की कोशिश में है, वहीं चीन ने इशारा किया है कि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में तालिबान बेहतर भूमिका निभा सकता है . सऊदी अरब के कट्टर दुश्मन ईरान ने भी तालिबान के साथ अपने संबंध ठीक करने की दिशा में कदम उठाए हैं, क्योंकि ईरान की सीमा अफगानिस्तान से लगती है . जुलाई में ही तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल तेहरान में ईरानी विदेश मंत्री से मिला था . 


जानिए पुरानी कहानी
यहां ये भी ध्यान देना जरुरी है जब सोवियत रूस के हाथों से मुजाहिदीन ने अफगानिस्तान को छीना था तो उस वक्त सऊदी अरब, यूएई और पाकिस्तान ने ही तालिबान के शासन को मान्यता दी थी, और अमेरिका की शह की बदौलत ही तालिबान इतना मजबूत हुआ था . जब तालिबान ने बामियान में महात्मा बुद्ध की मूर्ति को ध्वस्त किया था, उस वक्त अमेरिका समेत पश्चिमी देशों ने सिर्फ निंदा कर अपना फर्ज अदा कर लिया था, जब कांधार में भारतीय एयरप्लेन हाईजैक कर लाया गया उस वक्त भी दुनिया के कई देश तालिबान को आतंकी संगठन मानने को तैयार नहीं थे, अमेरिका पर जब 9/11 हमला हुआ तो उस वक्त तालिबान, अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन बना गया था . लेकिन 18 साल में अफगानिस्तान में अमेरिका कमजोर हुआ तो तालिबान धीरे-धीरे मजबूत हुआ , 


निवेश एक बड़ा मुद्दा
आज तालिबान को कई देश आतंकी संगठन के रुप में नहीं बल्कि अफगानिस्तान में एक बड़े निवेश के तौर पर देख रहे हैं . दुनिया की नजर में आक्रांता और क्रूर छवि को हटाकर तालिबान अपने आप को नए रुप में पेश करना चाहता है ताकि इस्लामिक देश उसके पक्ष में रहें , इसी वजह से साल 2013 में तालिबान ने दोहा में अपना राजनीतिक दफ्तर भी खोला, जो आज भी काम कर रहा है . इस कोशिश को मजबूत किया तालिबान के वर्तमान चीफ मौलवी हिब्तुल्लाह अखुंजादा जिसे 2016 में तालिबान की कमान दी गई थी...


आज तालिबान एक कॉरपोरेशन की तरह काम कर रहा है और अखुंजादा ने हक्कानी नेटवर्क के साथ तालिबान का साम्राज्य खड़ा कर लिया है, हकुंजादा की लीडरशीप में 12 से ज्यादा इस्लामिक कमीशन काम रहे हैं जो फाइनेंस, हेल्थ, सेना और शिक्षा पर कंट्रोल करते हैं . सुरक्षा परिषद की रिपोर्ट के मुताबिक तालिबान ने साल 2020 में 150 करोड़ डॉलर से ज्यादा रकम इकट्ठी की थी, आज दुनिया की कुल अफीम उत्पादन का 84 फीसदी अफगानिस्तान में होता है जिसे तालिबान के द्वारा काले बाजार में बेचा जाता है . 


अफगानिस्तान में माइनिंग पर भी तालिबान का कंट्रोल है और यहां माइनिंग के लिए कंपनियां रिश्वत के तौर पर बड़ा हिस्सा तालिबान को देती है, तालिबान लोगों से टैक्स भी वसूलता है . इसलिए पिछले 15 साल में तालिबान आतंकी संगठन की तरह नहीं संगठित गिरोह के रुप में काम कर रहा है . कट्टर इस्लामिक देश भी अब अफगानिस्तान को नए निवेश के तौर पर देख रहे हैं और वो चाहते हैं, तालिबान भी जानता है कि इस्लामिक लॉ को लागू करने के बाद कई देश परोक्ष रुप से उसे समर्थन देंगे . 


इसे बरकरार रखने के लिए तालिबान अब अफगानिस्तान में नई कैबिनेट बना रहा है, तालिबान ने कहा है कि वो अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मिलकर काम करना चाहता है . साफ है कि इस वक्त अगर दुनिया के देशों अफगानिस्तान से मुंह मोड़ा तो तालिबान को हरा पाना नामुमकिन हो जाएगा .


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