नई दिल्ली.  कनीमोझी ने कोटेचा पर आरोप लगाया है कि उन्होंने कहा था कि जो भी कोई उनका भाषण हिंदी में नहीं सुनना चाहे, वह सभागृह से बाहर निकल जाए. हाल ही में यह घटना एक सरकारी कार्यक्रम के दौरान हुई जिसमें देश भर के आयुर्वेदिक वैद्य और प्राकृतिक चिकित्सक सम्मिलित हुए थे. राजेश कोटेचा इस सभा को संबोधित कर रहे थे.


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तमिल भाषियों का कड़ा हिन्दी विरोध


आयुष मन्त्रालय के इस कार्यक्रम में भारत के विभिन्न राज्यों से आये तीन सौ अतिथियों में चालीस तमिलनाडु से थे. यही वह कारण था कि विवाद ने तूल पकड़ लिया. जाहिर है कि तमिलनाडु में हिंदी-विरोधी आंदोलन इतने लंबे अर्से से चला आ रहा है कि तमिल लोग दूसरे प्रांतों के लोगों के मुकाबले हिंदी कम समझते हैं. बहुधा वे हिन्दी समझते भी हैं तो भी हिन्दी विरोध की जिद के कारण वे नहीं समझने का दिखावा तब भी करते हैं.


मूल रूप से क्या कहा था कोटेचा ने


मंत्रालय के इस राष्ट्रीय प्रशिक्षण सत्र में आयुष सचिव राजेश कोटेचा ने दरअसल मंच से जो कहा था यदि उसे पूरा सुना जाये तो शायद इतने बड़े तूल का मामला बनता नही है. कोटेचा ने कहा था यहां उपस्थित जो प्रतिभागी हिंदी नहीं बोलते वे चाहें तो बाहर जा सकते हैं क्योंकि मैं अच्छी तरह से अंग्रेज़ी नहीं बोल सकता. 


अनुवादक की सेवा ली जा सकती थी


राष्ट्रीय स्तर के इस कार्यक्रम में आयुष सचिव अनुवादकों की सेवा ले सकते थे जो उनके हिन्दी के भाषण को बहुभाषी भारत के विभिन्न प्रतिनिधियों को संसद की भांति आसानी से समझने योग्य बना सकते थे. किन्तु उन्होंने जो कहा वो चाहे जिस ढंग से कहा हो, कुल मिला कर वह सरकारी नीति का पालन नहीं करता है और देखा जाये तो राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से भी यह अनुचित ही प्रतीत होता है.


अंग्रेजी भाषा नहीं उसकी पकड़ है लक्ष्य


भारत में अधिकतर हिन्दी समर्थक बड़े आंदोलनकर्ता, जो अंग्रेजी हटाओ का नारा देते थे, मूल रूप से अंग्रेजी का भाषा के तौर पर विरोध नहीं करते थे बल्कि उनके विरोध के निशाने पर अंग्रेजी का वर्चस्व और अंग्रेजी मानसिकता हुआ करती थी. ऐसे बड़े हिन्दी पक्षधरों में महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया का नाम लिया जा सकता है. किन्तु ये दोनो नेता भी क्रमशः ‘यंग इंडिया’ और ‘मेनकांइड’ नामक पत्रिकाओं के संपादक थे और इन पत्रिकाओं को अंग्रेजी में प्रकाशित करते थे.


हिन्दीवाद को व्यावहारिक रूप देना होगा 


राजेश कोटेचा हिंदी में ही बोलते हैं और इस आयोजन के दौरान भी हिन्दी में ही बोले, यह उचित भी है.  इस प्रशिक्षण सत्र में सम्मिलित भारत के नामी वैद्य हिंदी और संस्कृत भाषा समझते हैं किन्तु तमिलभाषी लोगों की उपस्थिति को ध्यान में रख कर कोटेचा को कुछ व्यावहारिक ढंग से अपने मंतव्य की अभिव्यक्ति करनी चाहिये थी ताकि यह विवाद न पैदा होता.


खुद भी अहिन्दीभाषी हैं कोटेचा


कनिमोझी ने जबरदस्ती भाषाई विवाद पैदा किया है, ये सभी जानते हैं. उन्हें मीडिया में प्रकाश में आने का अवसर भी मिला और हिंदी विरोध का भी बड़ा अवसर प्राप्त हुआ. उनके साथ ही साथ इस आयोजन में भाग ले रहे तमिलभाषी वैद्यों को पता है कि कोटेचा स्वयं भी अहिन्दीभाषी हैं और गुजरात से आते हैं, ऐसे में हिंदी को लेकर कही गई उनकी बात को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता था. उनके कथन का मूल तातपर्य यही था कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती है इसलिए हिंदी में बोलूंगा. किन्तु दुर्भाग्य से ऐसे कुछ मौकों पर इस तरह हिंदी विरोधियों का अंग्रेजी प्रेम अपनी भाषा से अधिक दिखाई देता है.  


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