मोहम्मद सुहेल: महबूब रमज़ान ख़ान जिनको दुनिया महबूब ख़ान के नाम से जानती है, फिल्मी दुनिया के सुनहरे दौर की ऐसी शख़्सियात में से एक हैं जिन्होंने तक़रीबन तीन दशकों तक एक से बढ़कर एक क्लासिक फिल्में बनाई. मदर इंडिया, आन, अंदाज़, अमर औरत, अनमोल घड़ी उनकी फिल्मों की लंबी फहरिस्त है. उनकी फिल्में एक अलग ही छाप छोड़ती हैं. आप शायद ताज्जुब करेंगे कि महबूब ख़ान बिल्कुल भी पढ़े-लिखे नहीं थे. लेकिन वो अपनी मेहनत और लगन से फिल्मी दुनिया के ऐसे नायाब डायरेक्टर बने जिनके नाम के बिना फिल्मी दुनिया का इतिहास नहीं लिखा जा सकता. 


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घर से भागे, मुंबई से पकड़कर लाए पिता
आज भी बड़े-बड़े संस्थानों में स्टूडेंट उनकी फिल्में देखकर फिल्म मेकिंग की बारीकियां सीखते हैं. महबूब ख़ान साहब का ताल्लुक़ गुजरात के बहुत ही छोटे से गांव से था. उस वक़्त Silent फिल्मों का ज़माना था. नन्हें महबूब ख़ान को न जाने कैसे फिल्में देखने का शौक़ चढ़ा और मौक़ा पाकर वो फिल्में देखने लगे. उनके दिल में ये बात घर कर गई कि मैं भी ऐसा ही एक्टर बनूंगा. 14-15 बरस के रहे होंगे कि किसी ने उन्हें बताया कि मुंबई में ये सब काम होता है. बस फिर क्या था वो मां-बाप को बिना बताए मुंबई भाग गए. पिता बहुत फिक्रमंद हुए. उनको किसी तरह से मालूम हो गया कि लड़का मुंबई में है. जिसके बाद लड़के की तलाश के लिए वो मुंबई पहुंच गए और किसी तरह उन्हें तलाश करने के बाद घर वापस ले आए. 


दोबारा घर से भाग गए मुंबई
महबूब ख़ान साहब घर तो वापस आ गए लेकिन उनके दिल व दिमाग़ पर फिल्मों का भूत सवार था. वो कुछ दिन बाद मौक़ा देखकर फिर मुंबई भाग गए. अबकी बार वालिद भी बेबस हो गए कि अब लड़के को वापस नहीं लाना है, चाहे वो कुछ भी करे. मुंबई में उस वक़्त भी रोज़ी-रोटी कमाना आसान नहीं थीं. महबूब ख़ान छोटी उम्र होने के बावजूद दर-दर भटकते रहे लेकिन उन्हें कोई काम नहीं मिला. मेहनत मज़दूरी करके उन्होंने खाने-पीने का जुगाड़ किया. वालिद के डर की वजह से वापस घर भी नहीं जा सकते थे. फिर किसी ने उन्हें बताया कि फिल्मों का काम स्टूडियो में मिलता है वो मौक़ा देखकर स्टूडियो के बाहर खड़े हो जाते ताकि आते-जाते किसी की नज़र उन पर पड़ जाए और उन्हें कोई काम मिल जाए लेकिन काम मिलना इतना आसान नहीं था. दिन गुज़रे, महीने गुज़रे और वो ऐसे ही स्टूडियो के बाहर खड़े होकर मायूसी की हालत में वापस लौट आते. काम देना तो दूर की बात, कोई उनसे बात तक नहीं करता था.


घोड़ों की नाल ठोकने का किया काम
कहते हैं कि अगर इंसान में कुछ कर गुज़रने का जज़्बा हो तो क़िस्मत भी उसका साथ देती है. नौजवान महबूब ख़ान अच्छे ख़ासे हट्टे-कट्टे नज़र आते थे. किसी साहब की नज़र उन पर पड़ी, उन्होंने महबूब ख़ान साहब से पूछा. अरे बेटा मैं अक्सर देखता हूं कि तुम यहां खड़े रहते हो, क्या तुम्हें नौकरी की तलाश है? महबूब ख़ान साहब को उम्मीद की किरण नज़र आई. उनकी हिम्मत जवाब दे चुकी थी, उन्होंने हां कह दिया. लेकिन उनको काम नहीं मिला. स्टूडियो में शूटिंग के लिए जो घोड़े होते थे, उनकी नाल ठोकने का काम महबूब साहब को मिल गया. ये तो शुक्र था कि महबूब साहब की एंट्री स्टूडियो के अंदर हो चुकी थी. वो अपना काम अंजाम दे रहे थे और उन्हें शूटिंग देखने का मौक़ा भी मिल जाता. 


इस तरह मिला पहला सीन
वक़्त यूं ही गुज़रता गया. एक दिन शूटिंग चल रही थी, सीन ये था कि एक साहब को भागते हुए घोड़े को संभालना था. लेकिन उससे घोड़ा संभल नहीं रहा था. तब एक डायरेक्टर की नज़र नौजवान महबूब खान पर पड़ी. उन्होंने सोचा ये लड़का हट्टा-कट्टा है, महबूब खान के हाव-भाव से उन्हें लगा कि शायद ये लड़का सीन कर ले. जब महबूब ख़ान से पूछा गया तो उन्होने फौरन हां कर दी, क्योंकि वो तो इस मौक़े की तलाश में थे. महबूब ख़ान ने ये सीन बख़ूबी अंजाम दिया. बस फिर क्या था महबूब ख़ान की चर्चा पूरे स्टूडियो में होने लगी. ये बात स्टूडियो के मालिक तक पहंची. स्टूडियो के मालिक थे अर्देशिर ईरानी. ये वहीं अर्देशिर ईरानी थे जिन्होंने पहली बोलती फिल्म आलम आरा बनाई थी. 


महबूब के एक जवाब ने शांत कर दिया अर्देशिर ईरानी का गुस्सा
अर्देशिर ईरानी ने महबूब साहब को स्टूडियो में बुलाया और कहा कि हम इस लड़के को Extra के तौर पर काम देंगे. अर्देशिर ईरानी चूंकि काफी बिज़ी रहते थे कोई न कोई उनसे मिलने ऑफिस आता रहता था. महबूब साहब अर्देशिर ईरानी के दफ्तर आते और वहां लगी घड़ी को देखते और फिर कुछ कहे बिना वहां से चले जाते. अर्देशिर ईरानी को जब ये पता चला कि वो लड़का बग़ैर इंतेज़ार किए ही वापस चला जाता है तो उन्हें बहुत ग़ुस्सा आया. अर्देशिर ईरानी ने अपने Assistant से कहा कि इस लड़के के स्टूडियो से बाहर निकाल दो, ये यहां नज़र नहीं आना चाहिए. लेकिन कुछ मिनटों बाद ही महबूब ख़ान वापस आते हैं और अर्देशिर ईरानी उन्हें डांटना शुरू करते हैं. महबूब ख़ान ने बताया कि उस वक़्त मैंने आपके ऑफिस में घड़ी देखी, तो मैं नमाज़ पढ़ने के लिए चला गया था. अर्देशिर ईरानी साहब का सारा गु़स्सा मानो ख़त्म हो गया. महबूब ख़ान की ये बात सुनकर अर्देशिर ईरानी के दिल में उनकी इज़्ज़त और बढ़ गई. अब महबूब ख़ान ने Extra के तौर पर काम करना शुरू कर दिया.


 


"इबादत से ज्यादा कुछ नहीं"
मेहनत, लगन और इबादत के साथ काम करने वाले शख़्स को कौन रोक सकता है. धीरे-धीरे वो कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ते गए और एक से बढ़कर एक कामयाब फिल्म बनाई. महबूब ख़ान साहब हमेशा लीक से हटकर फिल्में बनाते थे. फिल्मी दुनिया में उनके सहयोग को हम कभी नहीं भूल सकते. महबूब साहब फिल्में बनाते थे लेकिन साथ-साथ इबादत करना नहीं भूलते थे. महबूब ख़ान पांचों वक़्त की नमाज़ें अदा करते थे. वो बहुत परहेज़गार और बेहतरीन इंसान थे.