Hajj 2023: हज इस्लाम की अज़ीम इबादत है. शरीयत के 5 अकरान में से एक अहम रुक्न है. जिस्मानी और माली तौर पर मज़बूत मुसलमान पर ज़िदंगी में हज एक बार फ़र्ज़ है. तारीख़े शरीयत में पहला हज मुसलमानों के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा स.अ. ने सन 628 हिजरी में अपने असहाब के साथ किया था. हुज़ूरे अकरम मदीने से मक्का हज के लिए तशरीफ़ लाए थे. हालांकि ये आप की ज़िदंगी का आख़िरी हज था. लेकिन आप ने इसी हज के साथ उम्मते मुसलमां पर हज फ़र्ज़ क़रार दिया.


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दुनियाभर से आज़मीने हज सऊदी अरब के जेद्दा शहर पहुंचते हैं. वहां से वो बस के ज़रिए मक्का शहर जाते हैं. लेकिन मक्का से ठीक पहले एक ख़ास जगह है जहां से हज के मनासिक का बाक़ायदा तौर पर आग़ाज़ होता है. मक्का शहर के आठ किलोमीटर के दायरे से इस मख़सूस जगह की शुरुआत होती है. इसको मीक़ात कहते हैं. मीक़ात में दाख़िल होने से पहले आज़मीन एहराम पहनते हैं. एहराम सफ़ेद रंग का एक ख़ास क़िस्म का कपड़ा होता है. औरते एहराम नहीं बांधती वो सफ़ेद कपड़े पहनती हैं और हिजाब लगाती हैं. हज के दिन शुरु होने से पहले बहुत से आज़मीन उमरा कर लेते हैं. उमरा हज के दिनों को छोड़ कर हज जैसी इबादत को कहते हैं. उमरा साल के किसी भी महीने में किया जा सकता है. उमरा मुसलमानों पर फ़र्ज़ नही है. 



एहराम बांधकर आज़मीन मक्का से 12 किलोमीटर दूर मिना शहर जाते हैं. 8 ज़िलहिज को मुसाफ़िर मिना में ही ठहरते हैं और अगली सुबह यानी 9 ज़िलहिज को अराफ़ात के मैदान की तरफ़ निकल जाते हैं. अराफ़ात पहुंच कर वहां हाजी दुआ करते हैं. इस अमल को वफ़ूफ़े अरफ़ा कहते हैं. यहीं पर जबले रहमत है नाम की पहाड़ी यौमे अरफ़ा में हुज़ूर ने यहीं पर दुआ की थी. मैदान-ए-अराफ़ात ज़ोहर और असर की नमाज़ एक साथ मिला कर पढ़ी जाती है . 9 ज़िलहिज को ही शाम होते होते हुज्जाज-ए- किराम मुज़दलफ़ा पहुंचते हैं. 9 की रात यहीं गुज़ारते हैं. मग़रिब और इशा की नमाज़ यहां साथ मिला कर अदा की जाती है. यहीं से शैतान को मारने के लिए हाजी कंकर चुनते हैं.



10 ज़िलहिज की सुबह को मिना लौट आते हैं. मिना पहुंच कर शैतान को कंकर मारा जाता है. शैतान को कंकर मारने के बाद हाजी अपने सर मुंडवाते हैं. मर्द अपने बाल उचरवाते हैं जबकि औरतें के बाल के कुछ हिस्से तराशे जाते हैं. इसके बाद हाजी मक्का वापस लौटते हैं, काबे का तवाफ़ करते हैं और दुनियाभर में इसी तारीख़ यानी 10 ज़िलहिज को ईद उल अज़हा मनाई जाती है. तवाफ़ के बाद हाजी फिर मिना लौट जाते हैं और वहां दो दिन और रहते हैं. महीने की 12 तारीख़ को आख़िरी बार हाजी काबे का तवाफ़ करते हैं और दुआ करते हैं. इस तरह हज की अज़ीम इबादत मुकम्मल हो जाती है.


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