Supreme Court On AMU: सुप्रीम कोर्ट की सात जजों वाली बेंच ने गुरुवार को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया. कोर्ट जल्द ही इस मामले पर फैसला सुना सकती है. CJI डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली बेंच ने अटॉर्नी जनरल (एजी) आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता, केंद्र का प्रतिनिधित्व करने वाले सीनियर कानून अफसर और अधिवक्ता राजीव धवन कपिल सिब्बल द्वारा दी गई दलीलें सुनीं. 


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बता दें कि इन सात जजों की बेंच में जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और एससी शर्मा भी शामिल हैं.  साल  2006 में दिए फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने AMU को अल्पसंख्यक इंस्टीट्यूट मानने से इनकार कर दिया था. जिसके बाद कोर्ट ने इस मामले को  12 फरवरी, 2019 को 7 जजों की बेंच के पास भेज दिया था.


क्या है पूरा मामला?
जानकारी के लिए बता दें कि साल 1981 में भी ठीक इसी तरह का मामला आया  था, जिसके आधार पर यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा दिया गया. क्योंकि 1967 के अज़ीज़ बाशा मामले में पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था कि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के नाते अल्पसंख्यक संस्थान होने का दावा नहीं कर सकता है. हालांकि, 1981 एएमयू (संशोधन) अधिनियम के तहत इस संस्थान को अल्पसंख्यक का दर्जा दोबारा मिल गया था.


वहीं, साल 2006 के के जनवरी महीने में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को कैंसिल कर दिया, जिसके द्वारा यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था. इसके बाद यूनिवर्सिटी ने इस फैसले के खिलाफ अलग से एक पीआईएल ( PIL ) दायर की.


CJI ने क्या कहा?
सुनवाई के दौरान सीजेआई चंद्रचूड़ ने मौखिक रूप से कहा कि किसी शैक्षणिक संस्थान को केवल इसलिए अल्पसंख्यक दर्जे से वंचित नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह केंद्र या राज्य सरकार द्वारा बनाए गए कानून द्वारा विनियमित ( Regulated ) किया जा रहा है.  उन्होंने कहा, "आज, एक विनियमित राज्य में, कुछ भी पूरा नहीं है. सिर्फ इसलिए कि प्रशासन का अधिकार एक क़ानून द्वारा रेगुलेटेड है, संस्था के अल्पसंख्यक कैरेक्टर पर कोई असर नहीं पड़ता है."