नई दिल्लीः देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद को महज राजनीति का अजातशत्रु कह देने भर से हम उनकी सलाहियत को सीमित कर देंगे, सही मायने में वह जीवन के अजातशत्रु थे. उनकी बौद्धिकता, नैतिकता, सहृदयता, सरलता, साधुता ही उन्हें अजातशत्रु का दर्जा दिलाती थी. महात्मा गाँधी ने बहुत सोच विचार कर ही उन्हें अजातशत्रु कहा था. हमेशा सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद भारतीयता के ठेठ प्रतीक थे. बहुयामी व्यक्तित्व के धनी राजेंद्र बाबू उच्च कोटि के वक्ता ,लेखक, प्रखर चिंतक और विचारक थे. उनके समकालीन इज्जत से उन्हें राजेंद्र बाबू कहते थे.


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राजेंद्र बाबू का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार के एक छोटे से गांव जीरादेई में हुआ था. उनकी इब्तदाई तालीम घर पर ही हुई थी. 1902 में प्रेसेडेंसी कॉलेज से उन्होंने स्नातक किया. कोलकाता विश्वविद्यालय से 1907 में अर्थशास्त्र और 1915 में कानून में मास्टर डिग्री ली. श्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए इन्हे गोल्ड मेडल से सम्मानित किया गया. इसके बाद कानून में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की और पटना आकर वकालत करने लगे. किसान राजकुमार शुक्ल के आग्रह पर जब सन 1917 में गांधीजी चम्पारण सत्याग्रह के लिए बिहार आए तो राजेंद्र बाबू पहले से ही अपने स्वयंसेवकों के साथ वहां मौजूद थे. उसके बाद राजेंद्र बाबू ने अनुग्रह नारायण सिंह, ब्रजकिशोर बाबू, मौलाना मजहरूल हक, आचार्य जेबी कृपलानी के साथ मिलकर आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की. उसके के बाद राजेंद्र बाबू अपने स्वयंसेवकों के साथ गांधीजी के आंदोलन में शामिल हो गए. इस आंदोलन की कामयाबी ने ही गांधीजी को राष्ट्रीय नेता के तौर पर मकबूलियत दी. इन सारी घटना का जिक्र स्वयं गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ’सत्य के प्रयोग’ में ’नील के दाग’ प्रसंग में किया हैं. राजेंद्र बाबू ने भी इस विषय पर ’सत्याग्रह एट चम्पारण’ नाम से एक किताब लिखी है.  


गांधीजी की शख्सियत से प्रभावित होकर राजेंद्र प्रसाद ने उनकी विचारधारा को आत्मसात कर लिया और अपनी वकालत की सफल प्रैक्टिस को दरकिनार कर पूरी तरह स्वाधीनता आंदोलन को समर्पित हो गए. 1934 में राजेंद्र बाबू ने कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन के अध्यक्षता भी की. 1939 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के इस्तीफे के बाद कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. देश आजाद होने के बाद गांधीजी के आग्रह पर वह नेहरू कैबिनेट में खाद्य एवं कृषि मंत्री बन गए. इनकी ही अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन किया गया. 26 जनवरी 1950 को इनको भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति बनने का सर्फ हासिल हुआ. उसके बाद लागतार दो कार्यकाल क्रमशः 1952 और 1957 में चुने गए. 1962 तक राष्ट्रपति के पद पर रहे, आज भी सर्वाधिक लम्बे समय 12 साल तक भारत का राष्ट्रपति रहने का रिकाॅर्ड उन्हीं के नाम है. 1962 में ही इन्हे भारत रत्न से नवाजा गया. 


ताउम्र विवादों से दूर रहने रहने वाले राजेंद्र बाबू के पंडित जवाहर लाल नेहरू से कई मुद्दों पर राजनीतिक मतभेद थे. ऐसा भी कहा जाता है कि नेहरू सी राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे पर सरदार पटेल और कुछ वरिष्ठ नेताओं के हस्तक्षेप के बाद अपने फैसले से पीछे हट गए. पूर्व खुफिया अधिकारी आरपीएन सिंह ने अपनी पुस्तक ’नेहरू ए ट्रबल लिगेसी’ में इस बात का दावा किया हैं. पाश्चात्य संस्कृति के पक्षधर नेहरू धार्मिक आजादी के पैरोपकार थे, मगर राजेंद्र बाबू प्रचलित परम्परओं को बिना जनमत के बदलने के पक्ष में नहीं थे. कई बार दोनों नेताओं में मुखतलिफ मुद्दों पर सार्वजनिक टकराव देखने को मिला. पहला 1947 में संविधान सभा में भीम राव आम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल का मसौदा पेश किया, जिसका नेहरू ने समर्थन किया. मगर बतौर संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र बाबू ने इसका विरोध किया. वह कॉमन सिविल कोड के हिमायती थे, उनकी नजर में केवल हिन्दुओं को लक्ष्य करना तर्कसंगत नहीं था. वह नेहरू के सेकुलरिज्म से पूर्ण सहमत नहीं थे. नेहरू ने उनको सोमनाथ मंदिर के शिलान्यास कार्यक्रम  में भी जाने से मना किया, पर वह अपनी व्यक्तिगत आस्था के कारण गए. प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी चर्चित पुस्तक ’इंडिया आफ्टर गाँधी’ में इस घटना का जिक्र किया हैं.


अपने समकालीनों में सबसे विद्वान् राजेंद्र बाबू कानून के उच्चकोटि के जानकर, साहित्य के गंभीर अध्येता के साथ-साथ हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी पर समान अधिकार रखते थे. इनके पिता महादेव सहाय भी संस्कृत और फारसी के अच्छे जानकर थे. राजेंद्र बाबू अपनी माँ कमलेश्वरी देवी और बड़े भाई महेंद्र सहाय से विशेष लगाव रखते थे.  पहली बार महेंद्र सहाय के ही कहने पर ही 1905 में स्वदेशी आंदोलन से जुड़े थे. 
बचपन से ही मेधावी राजेंद्र बाबू स्वभावत पढ़ाकू किस्म के शख्स थे. अपनी अध्यनशीलता के कारण वह हर विषय पर समान अधिकार रखते थे. अपनी आत्मकथा के अलावे राजेंद्र बाबू ने ’इंडिया डिवाइडेड’, ’बापू के कदमों में बाबू’, ’सत्याग्रह एट चंपारण’, ’गांधीजी की देन’, ’भारतीय संस्कृति और खादी का अर्थशास्त्र’ जैसी कई किताबें लिखीं, जिनमें ’इंडिया डिवाइडेड’ काफी प्रसिद्व एवं प्रमाणिक हैं. 


नेहरू जी के पाश्चात्य जीवनशैली से इतर राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति बनने के बाद भी सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करते थे. जमीन पर आसान बिछा कर खाना ,प्रतिदिन सांध्यकालीन भजन सुनना और हर माघ मेले में  इलाहाबाद जाना जैसे अनेकों उदहारण हैं, जो उनको महामहिम के व्यक्तित्व से अलग करते थे. राजेंद्र प्रसाद की दो पोतियों ने प्रसिद्ध साहित्यकार महादेवी वर्मा के सानिध्य में शिक्षा ग्रहण किया था. जब वह इलाहाबाद जाते तो पत्नी राजवंशी देवी समेत उनसे जरूर मिलते. राजेंद्र बाबू के सरल व्यक्तित्व का जिक्र महदेवी वर्मा में अपने संस्मरणों बखूबी किया हैं. कर्तव्यनिष्ठ राजेंद्र बाबू का पूरा जीवन ही प्रेरक प्रसंगों से पटा पडा हैं. सविंधान के अनुसार, तत्कालीन राष्ट्रपति का वेतन दस हजार प्रतिमाह था, लेकिन वह केवल एक चैथाई अपने उपयोग के लिए लेते थे, कहते थे इतना ही उनकी जरूरतों के लिए काफी हैं.


उन्होंने अपना आखिरी वक्त पटना के सदाकत आश्रम में बिताया इसको वही दर्जा प्राप्त है, जो गांधीजी के साबरमती आश्रम को. वर्तमान में यह प्रदेश कांग्रेस का मुख्यालय हैं. जब 28 फरवरी, 1963 में जब बिहार की राजधानी पटना में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद का निधन हुआ तब उस समय के देश के लगभग सभी बड़े नेताओं ने उनके अंतिम संस्कार में हिस्सा लिया, लेकिन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू नहीं आए थे. नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन को भी सलाह दी थी कि, वह डॉक्टर प्रसाद के अंतिम संस्कार में न जाएँ, लेकिन राधाकृष्णन ने नेहरू की बातों पर विशेष ध्यान नहीं दिया और पटना गए. राजेंद्र बाबू की पोती तारा सिन्हा के संग्रह ‘राजेंद्र प्रसादः पत्रों के आईने में’ में भी इसका तस्दीक किया गया है. 


ए. निशांत 
लेखक एक शोधार्थी हैं, और इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी है.


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