नई दिल्लीः इस्लाम के आखिरी पैगंबर हजरत मुहम्मद (स.) और उनकी बीवी हजरत आयशा (रजि.) की शादी की उम्र को लेकर भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नुपूर शर्मा और पार्टी के निष्काषित नेता नवीन कुमार जिंदल के आपत्तिजनक बयान को लेकर भारत सहित अरब मुल्कों में आक्रोश है. अरब के कई देशों में इस मामले पर नाराजगी जताते हुए वहां की सरकारों ने भारतीय उच्चायुक्तों को तलब कर लिया है और वहां भारतीय उत्पादों के बहिष्कार की मुहिम चलाई जा रही है. हालांकि सरकार ने पार्टी के उन नेताओं के बयानों से पल्ला झाड़कर उन्हें पार्टी से निकाल दिया है.


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गौरतलब है कि ये विवाद हजरत मुहम्मद (स.) और उनकी बीवी हज़रत आयशा (रजि.) की उम्र को लेकर शुरू हुआ जिसमें शादी के वक्त हजरत आयशा (रजि.) की उम्र 6 साल बताकर उसपर आपत्तिजनक टिप्पणी की गई थी, जबकि हकीकत यह है कि शादी के वक्त हजरत आयशा की उम्र को लेकर इस्लामी विद्वान भी एकमत नहीं हैं. 
दारूल उलूम देबंद की वेबसाइट दारूल इफ्ता के मुताबिक, हजरत मुहम्मद साहब से हजरत आयशा की जब शादी हुई थी, तब उनकी उम्र 6 साल थी और जब उनकी रुखसती हुई तो उनकी उम्र 9 साल कुछ माह की थी.


सही बुखारी (हदीस) के मुताबिक, हमारे नबी से निकाह के वक्त हज़रत आएशा (रजि.) की उम्र 6 साल थी और नबी की उम्र 53 साल की थी मगर उनकी रुख्सती 9 साल की उम्र में तब हुई जब वह शारीरिक रूप से बालिग हो गईं और रुखसती का यह पैगाम उनकी मां ने ही भिजवाया था.


इस समय भारत से फरार चल रहे इस्लामी विद्वान डॉ. जाकिर नाइक की मानें तो उनके मुताबिक हदीस के मुताबिक आयशा की शादी और रुखसती उम्र 6 और 9 वाली बात सही है. डॉ. जाकिर नाइक कहते हैं कि मेडिकल साइंस के मुताबिक जब किसी लड़की को प्यूबर्टी (रजस्वला) आ जाता है, तो वह शादी के योग्य मान ली जाती है. कुरान भी यही हुक्म देता है, वहां लड़के और लड़कियों की शादी की उम्र तय नहीं की गई है. बस इतना कहा गया है कि जब वह बालिग हो जाएं तो उनका निकाह कर देना चाहिए. 


डॉ. नाइक के मुताबिक, दुनिया के हर हिस्से में लड़कियों को प्यूबर्टी आने की उम्र अलग-अलग होती है. भारत में 12 से 15 साल की उम्र के बीच में लड़कियों की रजस्वला शुरू हो जाती है. अमेरिकी में यह 15 के बाद शुरू होता है. ठंडे प्रदेशों में लड़कियों को प्यूबर्टी देर से शुरू होती है जबकि गर्म देशों में यह 9-10 साल में ही शुरू हो जाता है. डॉ. नाइक कहते हैं, कि सउदी अरब एक गर्म जलवायू वाला देश हैं, यहां कि लड़कियां दस साल में ही बालिग हो जाती है, तो इस लिहाज से यह बात सही हो सकती है. इसे भौगोलिक दशाओं और जलवायु के लिहाज से देखा जाना चाहिए.  


जामिया मिलिया से इस्लामिक अध्ययन में मास्टर, आलिम और इस्लामी मामलों के जानकार अबरार अहमद कहते हैं, "इस्लामिक वर्ल्ड में रिसर्च बहुत कम हुए हैं. मौलवियों ने सुनी-सुनाई और आम तौर पर कायम तारीखी रिवायतों को ज्यादा फॉलो किया है. दरअसल, मुहम्मद साहब और आयशा की शादी कोई अचानक नहीं हुई थी, इसे लेकर एक पूरा प्रसंग हैं. उनकी पहली पत्नी की मौत के लगभग 10 सालों बाद आयशा से शादी तय हुई थी. कुरान में लड़कियों की प्यूबर्टी (बलूगत) आने के पहले शादी से मना किया गया है, तो पैगम्बर साहब की शादी कुरान के आदेशों के खिलाफ नहीं हुई होगी. दूसरा कि वह खुद जंग में 15 साल से कम उम्र के लोगों को हिस्सा लेने से मना करते थे. जब जंगे उहद 3 हिजरी में हुई, उस वक़्त हजरत आयशा 15 साल की उम्र पार कर के जंग में शामिल हुईं थी. वह जंग में सैनिकों के लिए पानी का इंतजाम करती थी. किसनीजी (चमड़े से बना एक बैग जिसमें 20 से 25 लीटर तक पानी आता था) लेकर वह जंग के मैदान में हाजिर रहती थीं. इस तथ्य से यह साफ़ है की 6 या 9 साल में उनकी शादी की बात सही नहीं है. 


अबरार अहमद कहते हैं, "कुछ दलीलें और ऐतिहासिक रूप से इस संदर्भ में मौजूद प्रमाण शादी के वक्त हज़रत आयशा (रजि.) की उम्र 19 वर्ष सिद्ध करती हैं. तमाम इतिहासकार इसपर सहमत हैं कि हज़रत आयशा (रज़ि.) की बड़ी बहन हज़रत अस्मा (रज़ि.) उनसे दस साल बड़ी थीं. उनकी मौत सन 73 हिजरी में 100 साल की उम्र में हुई यानी हिजरी वर्ष आरम्भ होने के समय उनकी उम्र 27 या 28 साल थी, तो इस लिहाज से आयशा की उम्र भी 17-18 से कम नहीं रही होगी. कुछ विद्वान इसे लेखन त्रुटि भी मानते हैं. उसमें वह अरबी गिनती अशरे को इस त्रुटि का जिम्मेदार बताते हैं. 


भोपाल के मुफ्ती अबदुर्रहमान अहमद कहते हैं, "तारीखी रिवायतों पर बहस करना और उसमें उलझना ठीक नहीं है. हदीसों की व्याख्या में तर्कों और परिस्थितियों का अवलोक जरूरी होता है. तत्कालीन हालात से यह साबित होता है कि हजरत आयशा की उम्र रुखसती के वक्त 18 के आसपास रही होगी. लेकिन यहां सिर्फ उम्र को लेकर विवाद पैदा करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है. अबदुर्रहमान अहमद कहते हैं, काशना नबूवत किताब में भी हज़रत आयशा (रजि.) कि शादी के वक़्त उम्र 18 साल बताई गई है. उनकी पहले से कहीं शादी तय थी,और लड़के वाले ने किसी बात से शादी से मना कर दिया था. इसकी खबर एक औरत ने हुज़ूर तक पहुंचाई थी और फिर इसके बाद  हज़रत आयशा (रजि.) की मा के पास शादी का पैगाम भेजा गया था. 
  
दरअसल हुज़ूर (स.) ने अपनी पूरी ज़िन्दगी में पहली बीवी खादिजा (रजि.) की मौत के बाद 10 और शादियां की और इनमें हज़रत आयशा (रजि.) के अलावा बाकी सब विधवा और तलाकशुदा थीं और अलग-अलग परिस्थितियों के कारण समाज की बहिष्कृत महिलाएं थीं. उनकी बीवियों के नाम थे ख़दीजा बिन्त खुवायलद, साव्दाह बिन्त जा’मा, आएशा बिन्त अबु बकर, हफसाह बिन्त उमर , ज़ैनब बिन्त ख़ुजाइमाह, हिन्द बिन्त अबी उम्यया (उम्म सलामा) , ज़ैनब बिन्त जाहश, जुवाइरियाह बिन्त अल-हरीथ, रमला बिन्त अबु सुफियान, सफियाह बिन्त हुयाई इब्न अख़्ताब, मुहम्म बिन अल हरीथ.


अबरार अहमद कहते हैं, इन शादियों का मकसद समझने के लिए आपको मुहम्मद साहब (स.) के वक्त अरब की सामाजिक, आर्थिक हालात और कुरीतियों को समझना बेहद जरूरी है. उस वक्त पूरी दुनिया में औरतों पर ज़ुल्म हो रहा था. भारत में महिलाएं पति की मौत के बाद चिता पर जीवित जलाई जा रहीं थीं. बाल विवाह आम था. 10 साल की लड़की भी अगर विधवा हो जाती थी तो उसे ताउम्र अकेले रहना पड़ता था. भारत में देवदासी प्रथा आम थी. अरब में भी महिलाओं के हालात अच्छे नहीं थे. महिलाओं का बाज़ार लगता था. लोग एक औरत बेचते और दूसरी खरीद कर घर ले जाते, गुलामों की तरह रखते, अय्याशी करते और फिर कुछ दिन बाद उसे भी बेचकर अगली ले आते थे. औरतों के इन हालात के कारण ही वहां के लोग लड़की पैदा होते ही गड्ढा खोदकर जीवित दफ़न कर दिया करते थे. जो औरत विधवा हो गयी या तलाक शुदा हो गयी उसे भी बाज़ार में बिठा दिया जाता था. तब हमारे नबी ने महिलाओं के इन हालात और ऐसे बाज़ार का विरोध किया. लोगों को समझाया कि तुमको कोई औरत पसंद है तो उसके साथ निकाह करो और उसे उसका हक अदा करो. उसको इज़्ज़त दो, सम्मानजनक ज़िन्दगी दो, विधवा से शादी करो, गुलाम से शादी करो, तलाक शुदा से शादी करो और उसे हमेशा के लिए अपनी सुरक्षा दो. उनकी हर शादी में  तत्कालीन समाज के लिए कोई न कोई सन्देश था. इसलिए इस मुद्दे पर सवाल उठाना ठीक नहीं होगा. 


इस्लामिक मामलों के जानकार मानते हैं कि तब मोहम्मद साहब के अनुयायियों को यह बातें अटपटी लगती थी, कि कोई आदमी विधवा या तलाकशुदा महिला से विवाह कैसे कर सकता है. लोग महिलाओं को सिर्फ उपभोग की एक वास्तु समझते थे. उनकी इज्ज़त नहीं करते थे और पुरुषों के बराबर नहीं समझते थे. लोग समाज में फैले कुरीतियों  से अभ्यस्त हो चुके थे. इसलिए पैग़म्बर साहब ने लोगों का मांइडसेट बदलने के लिए समाज द्वारा अलग-अलग कारणों से बहिष्कृत और घृणित समझी जाने वाली 9 औरतों से शादी करके अपने समर्थक और अनुयायियों को दिखाया कि तुम्हारा पैगंबर जब ऐसी महिलाओं से  शादी कर रहा है तुम क्यों नहीं कर सकते ? उन्होंने ऐसी औरतों को समाज में मान्यता और इज्ज़त दिलाई और उनसे शादी करने को पुण्य बताया, ताकि समाज में सदियों से चली आ रही घिसी पिटी परीपाटी और मान्यताओं को ध्वस्त किया जा सके. कुछ विद्वान मुहम्मद साहब की शादियों को तत्कालीन परिस्थितियों और धर्म प्रचार की रणनीतियों का हिस्सा भी मानते हैं. इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि मुहम्मद साहब के निधन के बाद इस्लाम के प्रचार-पसार की जिम्मेदारी को हजरत आयशा ने बखूबी निभाया और उसे आगे बढाने का काम किया. 


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