Mirza Ghalib Death Anniversary: गालिब की पैदाइश 27 दिसंबर 1797 में उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में हुई. उन्होंने अपनी जिंदगी आगरा दिल्ली और कलकत्ता में गुजारी. गालिब ने अपने बारे में लिखा है कि दुनिया में यूं तो बहुत से अच्छे शायर हैं, लेकिन उनका अंदाज सबसे निराला है. मिर्ज़ा गालिब का असल नाम  'मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान' (Mirza Asadullah Baig Khan) था. गालिब उर्दू और फ़ारसी के मशहूर शायर थे. गालिब को उर्दू का सबसे मशहूर शायर माना जाता रहा है. ग़ालिब को उर्दू ग़ज़लों के लिए याद किया जाता है. गालिब को फ़ारसी शायरी को भारती जबान में लाने के लिए भी जाना जाता है. ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान दोनों जगह मकबूलियत हासिल है. गालिब की रचनाओं का यह आलम है कि उनके लिखे खत जो पब्लिश नहीं हो सके उनको भी उर्दू अदब के लिए बहुत अहम दस्तावेज माना जाता है. 1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा ग़ालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के ख़िताब से नवाज़ा. गालिब एक समय में मुग़ल दरबार के शाही इतिहासकार भी थे. गालिब ने 15 फरवरी 1869 को वफात पाई. 


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मौत का एक दिन मुअय्यन है 
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती 
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इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा 
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं 
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हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद 
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है 
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मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था 
दिल भी या-रब कई दिए होते 
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वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है
कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं
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हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन 
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है 
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इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब' 
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
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उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ 
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है 
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मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का 
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले 
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आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी 
अब किसी बात पर नहीं आती 
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