Ramazan Special: रमजान का मुकद्दस महीना चल रहा है. तकरीबन हर मर्द-औरत रोजा रह रहे हैं. इस्लाम में रोजों की बड़ी फजीलत है. इस्लाम की बुनियाद जिन चीजों पर टिकी है, उनमें से रोजा एक है. रोजा ऐसी इबादत है जो दिखावे वाली नहीं है. यह अल्लाह और उसके बंदे के दरमियान का मामला है. रोजों का सिला अल्लाह खुद अपने बंदों को देगा. रोजा हर हाल में फर्ज है. लेकिन इंसान के साथ कुछ ऐसे मसाएल आ जाते हैं, जिसके चलते इंसान को रोजा छोड़ना पड़ जाता है. रोजा छोड़ने पर उसकी कजा है इसके साथ इसका कफ्फारा यानी कि दंड भी अदा करने होता है. 


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रोजे की कजा


अगर कभी सफर, बीमारी या माहवारी की वजह से रोजा छूट जाता है तो इन रोजों को रमजान के बाद एक फर्ज रोजे के बदले एक रोजा रहना होता है. इसके लिए तसलसुल जरूरी नहीं. यानि कि गैप करके भी रोजा रहा जा सकता है.


इस हालत में रोजों की कजा जरूरी नहीं


अगर कोई शख्स जिंदा है और वह रोजा रखने की कुव्वत नहीं रखता है तो उसके बदले रोजाना एक गरीब को खाना खिलाना तो जरूरी है लेकिन अगर वह मर जाता है तो उसकी तरफ से रोजों की कजा जरूरी नहीं है.


वारिस रखें रोजे


अगर किसी शख्स के जिम्मे नजर के रोजे यानी मन्नत के रोजे हों और वह जिंदगी में न रह सके तो उसकी कजा उसके वारिसों के लिए जरूरी है. इस बारे में एक हदीस है कि "जो शख्स मर जाए और उसके जिम्मे रोजे हों तो वारिस उसकी तरफ से रोजे रखे."


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इस हालत में कजा जरूरी


अगर किसी शख्स ने बीमारी की वजह से रमजान के रोजे छोड़ दिए लेकिन उसने सेहतमंद होकर भी रमजान के बाद रोजे रखने में सुस्ती की और मर गया तो उसके वारिस को रोजा रखना होगा. इसी तरह से जिसने सफर की वजह से रोजा छोड़ा और रमजान के बाद उसे रखने में सुस्ती की और मर गया उसकी अदाएगी भी उनके वारिस करेंगे.


कफ्फारा अदा करें


मुफ्ती मोहम्मद इरफान बताते हैं कि जिस शख्स पर रोजे फर्ज होने की शर्त है, लेकिन उनकी जानकारी में उसके जिस्म में ताकत और कुव्वत देने वाली कोई गिजा-दवा चली गई या फिर हमबिसतरी की तो उनको इसका कफ्फारा अदा करना होगा. इसके लिए रमजान के बाद बिला नागा 60 दिन तक रोजे रखने होंगे या फिर 60 गरीबों को खाना खिलाना होगा.


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