दिल्ली हाई कोर्ट ने एक फैसले में कहा कि दोषी की जिंदगी के अधिकार में प्रजनन (Reproduction) करने का अधिकार भी शामिल है. इसी के साथ अदालत ने 41 साल के कत्ल के मुजरिम और उम्र कैद की सजा काट रहे शख्स को चार हफ्ते का पैरोल दे दिया. अदालत ने शख्स को यह रियायत इसलिए दी ताकि वह अपनी 38 साल की बीवी से चिकित्सा प्रक्रिया के जरिये संतान उत्पत्ति कर सके. 


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बच्चा पैदा करने में हो रही देरी
जज स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि केवल हिरासत में लिए जाने भर से दोषी दोयम दर्जे का नागरिक नहीं हो जाता. मौजूदा मामले में जहां दोषी और उसके जीवनसाथी का ‘जैव चक्र’ सजा पूरा होने के बाद गर्भधारण करने में बाधा बन जाएगा, ऐसे में बच्चे पैदा करने के मौलिक अधिकार का ‘राज्य के हित में त्याग नहीं किया जा सकता.’ जज शर्मा ने हालिया फैसले में कहा, ‘‘दोषी को हिरासत में लिए जाने की वजह से जैविक प्रक्रिया से बच्चा पैदा करने में देरी का अभिप्राय है माता-पिता बनने के मौलिक अधिकार से वंचित करना. इस अदालत की राय में, किसी दिए गए मामले के कुछ तथ्यों और हालात में, वर्तमान मामले की तरह, बच्चे पैदा करने का हक कारावास के बावजूद भी बना रहता है.’’ 


बच्चा पैदा करने का अधिकार
अदालत ने कहा, ‘‘इस अदालत को यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जीवन के अधिकार में एक दोषी का बच्चा पैदा करने का अधिकार भी शामिल होगा. उसके (याचिकाकार्ता के) पास जैविक संतान नहीं है और इस मकसद के लिए पैरोल की राहत बढ़ाई जाती है क्योंकि उसे डॉक्टर की मदद की जरूरत है. उसकी उम्र की वजह जैविक चक्र कमजोर हो सकता है और संतान उत्पन्न करने की संभावनाएं धूमिल हो सकती हैं.’’ 


मौलिक अधिकार पर सुनवाई
अदालत ने साफ किया कि वह शादी के संबंध और शादी के अधिकारों को बनाए रखने के मकसद से पैरोल देने के मुद्दे से नहीं निपट रही है, बल्कि जेल नियमों के अनुसार बच्चा पैदा करने के लिए आवश्यक इलाज कराने के एक दोषी के मौलिक अधिकार पर सुनवाई कर रही है. मौजूदा मामले में याचिकाकर्ता बीते 14 साल से कारावास में है और उसने इस आधार पर पैरोल देने का अनुरोध किया था कि वह और उसकी पत्नी अपने वंश को बचाना चाहते हैं और इसलिए विट्रो फर्टेलाइजेशन (IVF) के तहत चिकित्सा जांच के इच्छुक हैं.