Sengol: नए संसद भवन के साथ क्यों चर्चा में है ये प्रतीक; देश की आजादी का क्या है इससे रिश्ता
Sengol set to be installed in New Parliament: भारत जब ब्रिटिश हुकूमत से आजाद हुआ था, उस वक्त तत्कालीन वायसराय ने सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर देश के पहले प्रणानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को ये प्रतीक सौंपा था. लेकिन यह कहीं गुमनामी में किसी म्यूजियम में पड़ा हुआ था. अब सरकार ने इसे नए संसद भवन में लोकसभा स्पीकर के आसन्न के पीछे स्थापित करने का फैसला किया है.
नई दिल्लीः भारत में नए संसद भवन के उद्घाटन को अब कुछ ही दिन शेष रह गए हैं. इस नए संसद भवन में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारत को सत्ता हस्तांतरित करने के प्रतीक स्वरूप देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपे गए पवित्र ‘राजदंड’ (सेंगोल) को स्थापित किया जाएगा. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस बात की घोषणा की है. वहीं, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा है कि नए संसद भवन में पवित्र राजदंड स्थापित करने का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह फैसला ऐतिहासिक है. राजदंड अपने देश पर शासन करने के लिए सर्वोच्च नैतिक अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है. देशवासिशें के लिए सेन्गोल के महत्व को जानते हुए प्रधानमंत्री ने इसके गौरव को फिर से जिंदा करने का प्रयास किया है.
बड़ी दिलचस्प है इस प्रतीक की कहानी
ब्रिटिश हुकूमत द्वारा सत्ता हस्तांतरण के प्रतिक के तौर पर इस सेन्गोल को भारत को सौंपे जाने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. देश को आज़ादी मिलने की बस एक औपचारिकता भर रह गई थी. तभी भारत के आखिरी वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने प्रधानमंत्री पद के लिए नामांकित होने वाले जवाहर लाल नेहरू से एक अजीब सा सवाल किया था. उन्होंने नेहरू से पूछा, ’’सत्ता हस्तांतरण के वक्त आप क्या चाहेंगे? कोई खास प्रतीक या रिचुअल का पालन करेंगे? अगर कोई हो तो हमे बताइये!’’ इस सवाल पर नेहरू बुरी तरह से असमंजस में फंस गए. उनको कुछ समझ नही आया.
चोल वंश के राजा सत्ता हस्तांतरण में करते थे इसका इस्तेमाल
इसी उधेड़बुन में नेहरू ने उस वक्त के कुछ वरिष्ठ नेताओं से सलाह-मशविरा किया. तब नेहरू ने इसकी जिम्मेदारी सी राजगोपालचारी को सौंपी थी. सी राजगोपालचारी ने उस वक्त भारत के प्राचीन चोल साम्राज्य के एक प्रतीक के बारे में बताया जिसमें जब एक राजा से दूसरे राजा के हाथ मे सत्ता जाती थी तो राजपुरोहित एक राजदंड देकर उसका सम्पादन करते थे. तमिल पांडुलिपि में उस प्रतीक चिन्ह का जिक्र किया गया है. उसको लेकर वे नेहरू के पास गए. नेहरू ने राजेन्द्र प्रसाद और अन्य नेताओं से विमर्श कर उस प्रतिक चिन्ह पर हामी भर दी.
चेन्नई के ज्वेलर्स ने इसे बनाया था
चोल वंश जैसे प्रतिक चिन्ह पर सहमति जताने के बाद अब चुनौती उस राजदंड को बनाने की थी. सी राजगोपालचारी ने तंजोर के धार्मिक मठ से इस काम के लिए संपर्क किया. उनके सुझाव पर चेन्नई के ज्वेलर्स को इस सेन्गोल को बनाने के लिए आर्डर दिया गया. 5 फुट का ये प्रतीक चांदी का बनाया गया, जिसपर सोने की परत चढ़ाई गई. इस प्रतीक चिन्ह के शिर्ष पर नन्दी की आकृति बनाई गई जो न्याय का प्रतिक है. जब सेन्गोल तैयार हो गया तो उसे माउंटबेटन को दिया, लेकिन माउंटबेटन ने उसे पुरोहितों को वापस लौटा दिया और उसका गंगा जल से शुद्धिकरण करने के बाद उसे पंडित नेहरू को सौंपा गया. इस तरह गुलाम भारत इस पवित्र प्रतीक चिन्ह सेन्गोल के साथ आज़ाद भारत बन गया. वही सेन्गोल 28 अब मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा संसद के नए भवन में स्थापित किया जायेगा. संसद के इस नए भवन में लोक सभा सदन में अध्यक्ष के आसन के ऊपर ये प्रतीक चिन्ह स्थापित किया जाएगा.
आजादी के बाद गुमनामी में खो गया था ये सेन्गोल
अब सवाल उठता है कि इतने सालों तक सेन्गोल का क्या हुआ था? यह कहां रखा गया था? इतने सालों बाद ही सरकार को यह कैसे याद आई? और इसे नई संसद में रखने के लिए क्यां चुना गया? जानकारी के मुताबिक, सेन्गोल आज़ादी के वक्त सत्ता हस्तांतरण का पवित्र प्रतीक के रूप में धारण किया गया था, लेकिन आज़ादी के बाद नेहरू शायद सत्ता और प्रशासन में मशगूल हो गए और सेन्गोल कहीं धूल फांकने लगा. यहां तक कि इसे दिल्ली में भी ठिकाना नहीं मिला. ये दिल्ली से इलाहाबाद पहुँच गया और वो भी नेहरू के पैतृक निवास यानी आनंद भवन में रख दिया गया. यानी जो देश के गौरव का प्रतीक था, वह नेहरू की निजी संपत्ति बन गई और यह आनंद भवन की शोभा बढ़ाने लगा.
इसकी खोज करने में हुई काफी परेशानी
हालांकि, हाल में मिले ज्ञात दस्तावेजों के मुताबिक, नेहरू के समय ही इसे 1960 में इलाहाबाद संग्रहालय में भेज दिया गया और इस तरह सेन्गोल भूले बिसरे गीत की तरह भुला दिया गया. ये संग्रहालय के किसी कोने में धूल फांकने लगा. शायद ये आज भी किसी के संज्ञान में नही आता, अगर संसद का नया भवन नही बनता. जब संसद का नया भवन तैयार हो रहा था, तभी किसी विशेषज्ञ ने सेन्गोल का जिक्र प्रधानमंत्री से किया था. इसके बाद मोदी ने इसकी जांच करने के आदेश दिए.
इसे बनाने वाला कारीगर आज भी जिंदा है
14 अगस्त, 1947 के सेन्गोल को ढूंढने की मुहिम शुरू हुई, जबकि इसके बारे में न कोई लिखित डॉक्यूमेंट और न ही कोई चश्मदीद. पुराने राजे रजवाड़ो के तहखानों और संग्रहलयो कि तलाशी ली गई. देश के सभी संग्रहलयो में इसे तलाशा गया, लेकिन कोई सुराग नही मिला. बाद में प्रयागराज संग्रहालय के एक कर्मचारी ने कहा कि मैंने संग्रहालय के कोने में कोई चीज देखी है. इसके बाद खोजकर्ताओं ने इसे वहां से निकाला. इससे पहले 1947 से 1960 तक के तमिल अखबारों में इस प्रतीक के बारे में छपी आर्टिकल को खंगाला गया था. विदेशी अखबारों को खंगाला गया. 1975 में शंकराचार्य ने अपनी जीवनी लिखवाई थी, उसमे इसके जिक्र पाया गया. फिर चेन्नई के उस ज्वेलर के पास पहुँचा गया, जिसने 1947 में इसे बनाया था. खास बात यह है कि वह ज्वेलर भी 96 वर्षीय की अवस्था में आज भी जिंदा है. जब प्रयागराज के संग्रहालय से लाए गए सेन्गोल को उसे दिखाया गया तो ज्वेलर्स ने अपने हाथों से बनाई हुई इस अद्वितीय कलाकृति को पहचान लिया.
सेन्गोल का अर्थ है “नीतिपरायणता"
इस तरह से 1947 के पवित्र प्रतीक को नया जीवनदान मिल गया है. दयनीय स्थिति के कारण उस सेन्गोल को उसी ज्वेलर्स को ठीक करने के लिए दे दिया गया था. जब 28 मई को पीएम नरेंद्र मोदी लोक सभा अध्यक्ष के आसन के ऊपर इसे स्थापित करेंगे तो गौरवशाली सेन्गोल का पुराना वैभव फिर से लौट जाएगा. पाँच फ़ीट लंबा यह सेन्गोल चांदी का बना है जबकि इसपर सोने की परत चढ़ी है. ऊपर में नंदी विराजमान है. ‘‘सेन्गोल’’ शब्द तमिल शब्द “सेम्मई“ से लिया गया है, जिसका अर्थ है “नीतिपरायणता".
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