Qutubuddin Aibak: 800 साल पहले अफ़ग़ानिस्तान में सुल्तान मोइज़ुद्दीन (मोहम्मद) ग़ौरी का राज था. सुल्तान ऐशो आराम की ज़िंदगी और बेहतर क़दम उठाने के लिए सलाहकारों, दरबारियों और ग़ुलामों को ऐज़ाज़ (सम्मान) देने के लिए भी मशहूर थे. उसके दरबार में एक ऐसा ग़ुलाम था कि जिसने सुल्तान की तरफ़ से दिये जाने वाले तमाम इनाम और ख़ज़ाने को उनके महल के बाहर खड़े पहरेदारों और ज़रूरतमंदों में तक़सीम कर दिया. उसके इस काम से सल्तनत के लोग हैरान हो गए और फिर यह मामला सुल्तान तक पहुंचा. सुल्तान ने उस दरियादिल ग़ुलाम को मिलने के लिए बुलाया. उस ग़ुलाम का नाम था क़ुतुबुद्दीन ऐबक. क़ुतुबुद्दीन की रहमदिली का सुल्तान पर इतना असर हुआ कि उन्होंने उसे अपने सबसे क़रीबी लोगों में शामिल कर लिया.


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कौन हैं The Kashmir Files को प्रोपेंगडा करार देने वाला नादव, इजरायली फौज में रह चुके हैं


एक वाक़्य ने बदल दी तारीख़
अपनी किताब तबक़ात-ए-नासिरी में ग़ौरी सल्तनत के तारीख़दां (इतिहासकार) रहे मिन्हाज-उल-सिराज ने लिखा है कि उस वाक़्य के बाद से क़ुतुबुद्दीन ऐबक के दिन बदलने लगे. अपने क़रीबी लोगों में शामिल करने के बाद मोहम्मद ग़ौरी ऐबक को अपनी सल्तनत और दरबार से जुड़े अहम काम सौंपने लगे. उन्हें सल्तनत का सरदार बनाया और फिर उन्हें आखोर की डिग्री दी. उस दौर में इस ओहदे की काफ़ी अहमियत थी.


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ऐबक को दो बार बाज़ार में बेचा गया
क़ुतुबुद्दीन ऐबक ऐसा मुस्लिम राजा रहा जिसने हिन्दुस्तान में एक ऐसी मुस्लिम सल्तनत की बुनियाद डाली जिसने अगले 600 सालों यानी 1857 के ग़दर तक मुस्लिम राजा हुकूमत करते रहे. क़ुतुबुद्दीन ऐबक का तुर्की के ऐबक क़बीले से ताल्लुक़ था. ऐबक तुर्की ज़बान का वर्ड है जिसका मतलब होता है चंद्रमा का स्वामी. तारीख़दां का इस सिलसिले में कहना हैं कि इस क़बीले में शामिल औरतें और मर्द दोनों ही बहुत  ख़ूबसूरत होते थे, लेकिन क़ुतुबुद्दीन इतने ख़ूबसूरत नहीं थे.


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ऐबक ने जंग में दिखाया जौहर
जब मोहम्मद ग़ौरी ने भारत की तरफ अपना रुख़ किया तो ऐबक ने तराइन की दूसरी जंग में अपना जौहर दिखाया. जिसके बाद ग़ौरी की जीत हुई. हालांकि पहली जंग में ग़ौरी को हार का सामना करना पड़ा था. पहली लड़ाई राजपूत राजा पृथ्वी राज चौहान के साथ हुई जिसमें ग़ौरी को शिकस्त मिली थी. पहली हार के बाद ग़ौरी ने सबक़ लेते हुए दूसरी जंग में जीत हासिल की. अपनी जीत की ख़ुशी में ग़ौरी ने ऐबक को फौज में कई अहम ओहदे दिए.
उस लड़ाई के बाद से भी हिन्दुस्तान में ऐबल की सियासी ज़िंदगी का आग़ाज़ हुआ. साल 1206 में मुईज़ुद्दीन ग़ौरी की मौत के बाद ऐबक दिल्ली के सिंहासन पर क़ाबिज़ हुए. चूंकि मोहम्मद गौरी ने आख़िरी वक़्त तक अपना जांनशीन (उत्तराधिकारी) मुक़र्रर नहीं किया था, इसलिए उस दौर में सबसे बड़े ओहदे पर रहे ग़ुलाम को ही तख़्त (सिंहासन) दिया जाता था.


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