एक धार्मिक यात्रा से उपजे संप्रदायिक हिंसा के बाद आज हरियाणा के मेवात समेत कई जिले इस वक्त दो समुदायों के बीच आपसी नफरत और अविश्वास का दंश झेल रहा है. दोनों समुदाय एक दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यरोप लगा रहे हैं. सालों से दोनों समुदाय के लोग शांतिपूर्ण तरीके से रहते आ रहे थे, लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि उनका शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एक दूसरे के प्रति नफरत में बदल गया. हिंसा क्यों और कैसे हुई ये जांच का विषय है, लेकिन मेवात में यह धार्मिक हिंसा कोई नई बात नहीं है. मेवातियों ने 1947 में देश के बंटवारे के वक्त भी हिंसा का सामना किया था. बंटवारे के वक्त पूरा मेवात धार्मिक हिंसा की आग में झुलस रहा था. उनके खिलाफ “कब्रिस्तान या पाकिस्तान“ के नारे लगाए जा रहे थे. इसके बावजूद यहां के मुसलमानों ने देश न छोड़ने का संकल्प लिया था.


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महात्मा गांधी के हस्तक्षेप पर भारत में रूके थे मेवाती मुसलमान 
इतिहासकारों के मुताबिक, उस वक्त मेवात के मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल महात्मा गांधी से दिल्ली स्थित बिरला हाउस में मिलने गया था और उनसे कहा था, “यह वतन हमारा है, इसे हम नहीं छोड़ सकते.’’ इसके बाद महात्मा गांधी ने मेवात का दौरा किया  और वहां पर लोगों को खिताब करते हुए कहा था कि मेवात हिंदुस्तान की रीढ़ है, यहां पर मुसलमानों को देश छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाए. उस वक्त मेवात का इलाका उत्तर प्रदेश और राजस्थान सहित हरियाणा के कई जिलों तक फैला हुआ था. यहां मेव मुसलमान बहुसंख्यक की भूमिका में थे. गांधी अपनी हत्या के करीब एक माह पूर्व 9 दिसंबर 1947 को मेवात गए थे. महात्मा गांधी ने मेवात के मुसलमानों को आश्वासन देते हुए कहा था कि उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा. महात्मा गांधी ने मेवाती मुसलमानों से भारत में ही रहने का अनुरोध किया, जिसके बाद पलायन का मन बना चुके कुछ मुसलमान भी गांधी की अपील के बाद हिंदुस्तान में ही रुक गए.


गांधी की हत्या के बाद मेवाती मुसलमानों को झटका
मेवात के मेव समुदाय से ही ताल्लुक रखने वाले सिद्धीक अहमद अपने बताते हैं की गांधी की हत्या मेवात के मेव समुदाय के लिए एक झटका था. गांधी ने जिन्हे रहने के लिए मना लिया था, उन्हें एक बार फिर लगने लगा था कि उन्हें फिर पलायन करना पड़ेगा. सिद्दीक अहमद आगे बताते हैं कि गांधी की हत्या के बाद मेवात की महिलाएं एक गीत गाती थी, जिसके लाइने कुछ ऐसी थी - “भरोसा उठ गयो मेवात का, गोली लगी है गांधीजी के छाती बीच“. 


मुल्क के बंटवारे के वक्त मेवाती मुसलमन झेल चुके हैं भीष्ण दंगे 
इतिहासकार सिद्दीक अहमद बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के वक्त मेवात अलवर राज में आता था. साल 1933 में अलवर के शाही परिवार ने मेवात के मेवों मुस्लिम किसानों पर भारी कर लगा दिया था. इसके बाद मेवात के मेव मुस्लिमों ने इसके खिलाफ एक आंदोलन चलाया. इस आंदोलन का नतीजा यह निकला कि अंग्रेजी हुकूमत अलवर के राजा को पद से हटाकर राज्य का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया था. अलवर राज परिवार ने अपने इस अपमान का बदला मेवों से बंटवारे के वक्त लिया. इतिहासकार अहमद बताते हैं कि भरतपुर और अलवर रियासत में मेवों की कुल आबादी दो लाख थी, जिसमें बंटवारे के वक्त संप्रदायिक दंगे में अकेले भरतपुर के तीस हजार मेव मुसलमान मारे गए थे. 


भरतपुर रियासत के राजा ने तो मेवात के मेव मुसलमानों के लिए “कब्रिस्तान या पाकिस्तान"  का नारा तक दे दिया था. अलवर में मेव मुसलमानों को देखते ही हत्या कर दी जाती थी. उनके गांवों को समतल कर दिया जाता था. सिर्फ उन्हें ही रहने की अनुमति दी जाती जिन्होंने धर्मांतरण करने पर राजी हो गया हो. सिद्दीक अहमद यह भी मानते हैं कि वह संप्रदायिक दंगा दोनों रियासतों के द्वारा आयोजित किया गया था और उस दंगे को उन संगठनों ने चलाया था जिन्हें आज हम दक्षिणपंथी संगठनों के रूप में जानते हैं. दंगे में जो लोग बचे थे वह प्रतीक्षा शिविर में चले गए. अहमद के मुताबिक प्रशिक्षण शिविर से पाकिस्तान जाने का रास्ता तय होता था. जहां लोग तब तक रहते थे, जब तक पाकिस्तान नहीं भेज दिया जाता था. 


कौन है मेवाती (मेव) मुसलमान 
हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में शामिल 1000 साल से रह रहे मेव मुस्लिमों के ओरिजन को लेकर कई मान्यताएं हैं.
एक सिद्धांत के मुताबिक, मेव हिंदू राजपूत थे. इतिहासकार शैल मायाराम ने 'अगेंस्ट हिस्ट्री, अगेंस्ट स्टेटः काउंटरपरस्पेक्टिव फ्रॉम द मार्जिन्स’ में मेव समुदाय को हिंदू राजपूत बताते हुए लिखा है, “साल 1355 में कोटला की जादौन राजपूत राजा लखन पाल के दो बेटे कुंवर सोनपर पाल और कुंवर समर पाल दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के यहां नौकरी करते थे. इसी बीच एक बार दिल्ली सल्तनत के सुल्तान फिरोज़ शाह तुगलक शिकार पर गए थे. उनके साथ दोनों राजपूत कुंवर भी गए हुए थे. इसी दौरान एक बाघ ने दिल्ली के सुल्तान के ऊपर हमला कर दिया. कुंवर सोनपर पाल ने अपने शानदार तीरंदाजी के बदौलत बाघ को मारकर दिल्ली के सुल्तान फिरोज शाह तुगलक की जान बचाई थी. 


इस घटना के बाद सुल्तान फिरोज शाह तुगलक ने खुश होकर दोनों भाइयों को खान की उपाधि दी और कुंवर सोनपर पाल का नाम बदलकर नाहर खान और कुंवर समर पाल का नाम बदलकर छजू खान कर दिया. इसके बाद 1372 में फिरोजशाह तुगलक ने मेवात का शासन राजा नाहर खान मेवाती को सौंप दिया. इतिहासकार शैल मायाराम के मुताबिक, राजा नाहर खान के वंशज ही मेव मुस्लिम हैं.


वहीं, दूसरी थ्योरी यह भी है कि ब्रिटिश हुकूमत में मेव मुस्लिमों को मीणा समुदाय से परिवर्तित माना जाता था. मेव समुदाय के मीणा में परिवर्तन की थ्योरी सबसे पहले एथनोग्राफर और अलवर स्टेट के पोलिटिकल एजेंट मेजर पी डब्ल्यू पावलट ने दी थी. 1878 में पावलट ने उलवुर के गजेटियर में लिखा है-“मेव और मीणा शब्दों में काफी समानता है, जिससे पता चलता है कि यह मीणा से निकला हुआ ही एक रूप है.


:- गुलाम रज़ा खान 


लेखक पत्रकार हैं, यहां व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं. 


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