Urdu Poetry in Hindi: "...मगर अपने अपने मकाम पर कभी तुम नहीं कभी हम नहीं"

Siraj Mahi
Oct 15, 2024

उन का ज़िक्र उन की तमन्ना उन की याद, वक़्त कितना क़ीमती है आज कल

जाने वाले से मुलाक़ात न होने पाई, दिल की दिल में ही रही बात न होने पाई

यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है, आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया

मुझे दोस्त कहने वाले ज़रा दोस्ती निभा दे, ये मुतालबा है हक़ का कोई इल्तिजा नहीं है

काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर, फूलों की सियासत से मैं बेगाना नहीं हूँ

तुम फिर उसी अदा से अंगड़ाई ले के हँस दो, आ जाएगा पलट कर गुज़रा हुआ ज़माना

नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है, ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे

मोहब्बत ही में मिलते हैं शिकायत के मज़े पैहम, मोहब्बत जितनी बढ़ती है शिकायत होती जाती है

वही कारवाँ वही रास्ते वही ज़िंदगी वही मरहले, मगर अपने अपने मक़ाम पर कभी तुम नहीं कभी हम नहीं

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