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-गर्भ में तीसरे हफ्ते से लेकर 7 वें महीने तक बच्चे के कान विकसित होते हैं.
-बच्चा जब मां के गर्भ में होता है तो 5वें हफ्ते से ही आवाज़ें पहचानने लगता है.
-इसका मतलब ये है कि गर्भावस्था से ही इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि बच्चा शोर से दूर रहे.
-वरना शोर से होने वाले नुकसान की शुरुआत जन्म से पहले ही होने लगती है.
-तेज़ शोर की वजह से बच्चों के कानों में मौजूद छोटे-छोटे संवेदनशील हेयर सेल्स को नुकसान होता है. शोर को कंट्रोल करने में हेयर सेल्स की भूमिका अहम होती है.
-जन्म के बाद बच्चा सुन पा रहा है या नहीं, ये आसानी से पता नहीं चलता.
-कई बार बच्चा तस्वीरें देखकर रिएक्ट करता है लेकिन माता-पिता उसे आवाज़ पर होने वाला रियक्शन समझ लेते हैं.
-नवजात बच्चों के लिए डॉक्टरों की सलाह होती है कि तीन साल की उम्र तक उसे तेज़ शोर से दूर रखना चाहिए.
-शोर वाली जगह पर जाना ज़रूरी हो तो कानों में रुई रखकर ही बच्चे को साथ ले जाएं.
-शोर के अलावा गर्भ में पल रहे बच्चों में बहरेपने के कई अन्य कारण भी हैं.
-डाक्टरों के मुताबिक बच्चों में बहरेपन का दूसरा बड़ा कारण है-नजदीकी रिश्तेदारी में शादी हो जाना.
-भारत में नज़दीकी रिश्तेदारी होने के बाद भी अगर शादी की जाती है तो होने वाली संतान में कई तरह की आनुवांशिक खामियां हो सकती हैं और बहरापन उनमें से एक है.
-एक रिपोर्ट के मुताबिक-दिल्ली में हर 4 में से 1 व्यक्ति सुनने की क्षमता वक्त से पहले खो देता है, यानी अब लोगों को कानों से जुड़ी बीमारियां 15 वर्ष पहले ही हो रही हैं
-मुंबई में हर 10 में से 4 ट्रैफिक पुलिसकर्मी ठीक से सुन नहीं पाते क्योंकि वो पूरे दिन ट्रैफिक के शोर के बीच काम करते हैं.
-चेन्नई में जब राह चलते लोगों के बीच एक सर्वे किया गया तो पता लगा कि हर 15 में से 1 व्यक्ति ध्वनि प्रदूषण की वजह से अब ठीक से सुन नहीं पाता है.
-इयरफोन के ज़्यादा इस्तेमाल की वजह से बैंगलुरू में हर 8 में से 1 युवा को अब सुनने में परेशानी होती है
-कोलकाता में लोगों के बीच हुए रैंडम सर्वे में ये बात पता चली है कि हर 13 में से 1 व्यक्ति ध्वनि प्रदूषण की वजह से खुद को बीमार महसूस करता है.
-अर्थ सेवर्स फाउंडेशन नामक संस्था के मुताबिक भारत के शहरों में होने वाले ध्वनि प्रदूषण में हॉकिंग की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत है.
-यानी अगर लोग बिना वजह हॉर्न बजाने की अपनी आदत में सुधार ले आएं तो ध्वनि प्रदूषण को 70 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है.
-मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि सेफ ड्राइविंग यानी सुरक्षित तरीके से वाहन चलाने के नाम पर लगातार हॉर्न बजाने की आदत, अपनी कुंठा और गुस्सा उतारकर खुद को अच्छा महसूस कराने का तरीका है.
-ऐसा अक्सर वो ड्राइवर भी करते हैं, जिनमें या तो धैर्य नहीं होता या फिर वो घर से देर से निकलने की आदत को छोड़ नहीं पाते. ऐसे लोग सोचते हैं कि शायद वो हॉर्न बजा-बजाकर लेट-लतीफ रहने की आदत का तोड़ निकाल लेंगे.
-भारत में ट्रैफिक सिग्नल के ग्रीन होते ही, वाहन चालक अपना धैर्य खो देते हैं और हॉर्न बजाना शुरू कर देते हैं.
-इतना ही नहीं कुछ ड्राइवर्स तो सिग्नल के ग्रीन होने का इंतज़ार भी नहीं करते. वो धीरे-धीरे आगे बढ़ने की कोशिश में हॉर्न बजाते रहते हैं.
-ऑस्ट्रेलिया में एक स्टडी के दौरान पाया गया कि अगर ड्राइवर्स तय वक्त से 10 मिनट पहले अपने घर से निकल जाएं तो सड़कों पर हॉर्न बजाने की जरूरत बहुत कम पड़ेगी.
-1 अक्टूबर 1908 को फोर्ड मॉडेल टी के नाम से पहली ऐसी कार बाज़ार में आयी थी जिसे आम लोग खरीद सकते थे.
-इसके दो साल बाद हॉर्न की ज़रूरत महसूस होने लगी. 1910 में इंग्लैंड के ओलिवर लुकास ने दुनिया का पहला इलेक्ट्रानिक हॉर्न बनाया था जिसका मकसद कार के आगे पैदल चलने वाले लोगों और दूसरे वाहन चालकों को सतर्क करना था ताकि टक्कर और दुर्घटनाएं ना हो.
-आप इसे कार्स में लगाया जाने वाला सबसे पुराना सेफ्टी डिवाइस भी कह सकते हैं.
-आपको यहां ये भी बताना ज़रूरी है कि दुनिया के सबसे शांत शहर कौन से हैं.
-इस लिस्ट में पहले नंबर पर है स्विटजरलैंड का शहर ज्यूरिख.
-दूसरे नंबर है ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना.
-तीसरे नंबर पर है नॉर्वे की राजधानी ओस्लो, और चौथे नंबर पर जर्मनी का शहर म्यूनिख है.