किसान कर्ज माफी: जितना कर्ज लेते हैं किसान, उससे डेढ़ गुनी रकम डुबा देते हैं धन्नासेठ
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किसान कर्ज माफी: जितना कर्ज लेते हैं किसान, उससे डेढ़ गुनी रकम डुबा देते हैं धन्नासेठ

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और असम में किसानों की कर्ज माफी के ऐलान के साथ ही देश में इस बात पर बहस तेज हो गई है कि किसानों का कर्ज माफ किया जाना अच्छा आर्थिक फैसला है या नहीं.

31 मार्च 2018 को देश के किसानों पर कुल 7.53 लाख करोड़ रुपये का फसल लोन था...(फाइल फोटो)

नई दिल्ली: मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और असम में किसानों की कर्ज माफी के ऐलान के साथ ही देश में इस बात पर बहस तेज हो गई है कि किसानों का कर्ज माफ किया जाना अच्छा आर्थिक फैसला है या नहीं. भारतीय रिजर्व बैंक का स्पष्ट मत है कि किसानों की कर्ज माफी नहीं की जानी चाहिए. ऐसा करने से कर्ज न चुकाने की मानसिकता बढ़ती है और वे लोग भी कर्ज नहीं चुकाते जिनमें कर्ज चुकाने की क्षमता होती है. इसी नीति के अनुरूप केंद्र सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में कर्ज माफी के लिए कोई रकम नहीं दी, भले ही राज्यों में भाजपा की सरकार ने भी कर्ज माफी क्यों न की हो.

इन तीन राज्यों से पहले महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और पंजाब में भी राज्य सरकारों ने अपनी-अपनी तरह से किसानों की कर्ज माफी पिछले दो साल में की है. मोदी सरकार से पहले मनमोहन सिंह सरकार ने जरूर केंद्रीय स्तर पर किसानों की कर्ज माफी की थी. मनमोहन सिंह खुद भी न सिर्फ अर्थशास्त्री हैं, बल्कि रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रह चुके हैं, वही आरबीआई आज कर्ज माफी के खिलाफ है. तो जरा देश में कर्ज की स्थिति पर नजर डालें...

किसानों के कर्ज का 7.18 फीसदी ही बट्टे खाते में
पिछले वित्त वर्ष की समाप्ति पर यानी 31 मार्च 2018 को देश के किसानों पर कुल 7.53 लाख करोड़ रुपये का फसल लोन था. इसमें से 85,344 करोड़ रुपये का कर्ज ऐसा था जो नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) हुआ. बोलचाल की भाषा में कहें तो एनपीए यानी बट्टे खाते में गया कर्ज जिसकी वसूली की उम्मीद न के बराबर है. इस तरह किसानों ने जितना कर्ज लिया उसका 7.18 फीसदी कर्ज ही बट्टे खाते में गया.

उद्योगों का 21 फीसदी हुआ एनपीए
दूसरी तरफ बैंकों के कुल कर्ज का हाल देखिए. 31 मार्च 2018 को बैंकों का कुल एनपीए 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक (10,35,528 करोड़ रुपये) था. यानी किसानों ने पिछले वित्त वर्ष में जितना कुल कर्ज लिया उससे ज्यादा पैसा तो बड़े कर्ज लेने वालों ने डुबा दिया. एनपीए की यह रकम बैंकों के कुल कर्ज की 11.6 फीसदी है. अगर सिर्फ उद्योगों को दिए कर्ज की बात करें तो 31 मार्च 2018 को उद्योगों को दिया गया 21 फीसदी कर्ज एनपीए हो गया यानी बट्टे खाते में चला गया.

किसान कर्ज के आंकड़े और उद्योग जगत को दिए गए कर्ज के आंकड़ों से साफ है कि बैंकों ने किसानों को जितना उधार दिया है, उसकी करीब 15 गुना रकम उद्योगों को दी है. और उद्योग किसानों की तुलना में कहीं बड़े पैमाने पर कर्ज डकार जा रहे हैं. देश की अर्थव्यव्स्था की मौजूदा स्थिति यह है कि सरकार किसी न किसी तरीके से उद्योगों में डूब गई रकम के बावजूद अर्थव्यवस्था को चलाए ले जा रही है. सरकार की ओर से बराबर यह दावा किया गया है कि देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर है और दूसरी अर्थव्यवस्थाओं से कहीं अच्छा काम कर रही है.

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बर्दाश्त करने लायक है किसानों की कर्ज माफी
तो अगर सरकार उद्योगों के भारी भरकम कर्ज के डूबने के बावजूद अर्थव्यवस्था को बचा सकती है तो उसके बहुत छोटे हिस्से के बराबर कर्जमाफी को भी बर्दाश्त कर सकती है. और ऐसा लग रहा है कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस दोनों ही इस बात को समझ रहे हैं. संभवत: इसीलिए केंद्र सरकार रिजर्व बैंक से कुछ अतिरिक्त पैसा लेना चाह रही है, ताकि इसे जरूरत पड़ने पर कर्ज माफी में इस्तेमाल किया जा सके. दूसरी तरफ कांग्रेस अपनी पिछली सरकार में कर्ज माफी कर चुकी है और उसके बाद भी अर्थव्यवस्था का इंजन रफ्तार से बढ़ता रहा था. यानी कांग्रेस को भरोसा है कि कर्जमाफी से तात्कालिक वित्तीय बोझ भले ही पड़े, लेकिन मीडियम टर्म में अर्थव्यवस्था को बहुत झटका नहीं लगता.

किसानों की कर्ज माफी से दो फायदे अलग से होते हैं. पहला तो यह होता है कि कर्ज माफ करने वाली पार्टी की चुनावी ग्रहदशा मजबूत हो जाती है. दूसरे यह होता है कि इस तरह से एक झटके में बड़ी रकम सीधे गांव और किसान तक पहुंच जाती है. समाज के सबसे निचले तबके के पास पैसा पहुंचते ही बड़े पैमाने पर आर्थिक गतिविधि तेज होती है, यानी 'वेलोसिटी ऑफ मनी' बढ़ जाती है. इससे भले ही सरकार के खजाने पर बोझ बढ़े, लेकिन खासकर असंगठित क्षेत्र को इससे बहुत फायदा मिलता है. यानी कर्ज माफी से अंतत: समाज के उस सबसे निचले तबके को फायदा मिलेगा, जिसे नोटबंदी के कारण सबसे बड़ा आर्थिक झटका झेलना पड़ा था.

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डीजल-पेट्रोल से मिलेगी मदद
मौजूदा सरकार या 2019 में आने वाली सरकार को यह काम करने में पिछली सरकारों की तुलना में इसलिए आसानी होगी, क्योंकि अब डीजल और पेट्रोल पर सब्सिडी खत्म हो चुकी है. यानी सरकारों को जो हजारों करोड़ रुपये तेल सब्सिडी पर खर्च करने पड़ते थे, वे अब उसके पास हैं. इसके अलावा नरेंद्र मोदी सरकार ने खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी को भी धीरे-धीरे कम किया है. कभी एक लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया फर्टिलाइजर सब्सिडी का बिल 2016-17 तक में ही घटकर 70,000 करोड़ रुपये पर आ गया था. खाद सब्सिडी का घटता बिल भी सरकार के लिए कर्ज माफी की एक खिड़की खोलता है.

अमेरिका जैसे विकसित देश भी शामिल
अगर सरकार कर्ज माफी करेगी तो यह कोई अनोखी घटना नहीं होगी. अमेरिका जैसा विकसित और संपन्न देश भी किसानों के लिए इस तरह के काम करता है. वहां कर्जमाफी की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि अमेरिकी सरकार किसानों को हर साल औसतन 25 अरब डॉलर यानी करीब 1.75 लाख करोड़ रुपये की कृषि सब्सिडी देती है. अमेरिका में इस सब्सिडी का विरोध करने वालों की कमी नहीं है, लेकिन हर सरकार इसे जारी रखती है, क्योंकि उसे पता है कि देश के विकास का मतलब जीडीपी के आंकड़े भर नहीं हैं, बड़ी आबादी की खुशहाली है.

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किसानों पर बढ़ता संकट
भारत में राजनैतिक दलों को यह काम करना ही पड़ेगा, क्योंकि किसानों का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है. इसका अंदाजा पिछले कुछ साल से खेती में बढ़ते एनपीए से लगाया जा सकता है. क्योंकि 31 मार्च 2018 को खेती का एनपीए जहां 7.18 फीसदी पर पहुंचा है, उससे ठीक एक साल पहले यह 5.61 फीसदी और उससे दो साल पहले यह 5.44 फीसदी पर था. इसका मतलब है कि पिछले तीन-चार साल में किसान पर संकट बढ़ा है और उसे कर्ज चुकाने में दिक्कत आ रही है. इस चीज को किसान आत्महत्याओं के ट्रेंड से भी समझा जा सकता था, लेकिन 2016 के बाद से क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट ही नहीं आई है.

तो जाहिर है कि देश के करीब 80 करोड़ लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले करीब 2 लाख करोड़ रुपये के खर्च यानी कर्ज माफी को उठाने की तैयारी राजनैतिक दल कर रहे हैं. जब चुनाव सिर पर हैं और करोड़ों किसानों के साथ राजनैतिक दलों का भविष्य भी दांव पर है, तो नेताओं के पास आरबीआई की पारंपरिक राय यानी कर्ज माफी न करने की बात से हटने के अलावा कोई चारा नहीं है. मोदी सरकार पहले ही दिखा चुकी है कि आरबीआई को किताबी अर्थशास्त्र की जगह व्यावहारिक अर्थशास्त्र के हिसाब से चलना होगा.

(लेखक पीयूष बबेले जी न्यूज डिजिटल में ओपिनियन एडिटर हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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