Zee जानकारी : रूढ़ीवादी सोच की ज़ंजीरों को तोड़ने वाली ज़ायरा का काम अलगाववादियों और कट्टरपंथियों को पसंद नहीं आया
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Zee जानकारी : रूढ़ीवादी सोच की ज़ंजीरों को तोड़ने वाली ज़ायरा का काम अलगाववादियों और कट्टरपंथियों को पसंद नहीं आया

अंग्रेज़ी में एक मशहूर कोट है 'Example is not the main thing in influencing others. It is the only thing' यानी किसी को प्रभावित करने के लिए उदाहरण देना प्रमुख ज़रूरत नहीं है, बल्कि इकलौती ज़रूरत है। लेकिन कश्मीर घाटी हमारे देश का एक ऐसा हिस्सा है, जहां अच्छी चीज़ों को प्राथमिकता नहीं दी जाती। और बुरे उदाहरण देकर वहां के युवाओं की आवाज़ दबाने की कोशिश की जाती है।

Zee जानकारी : रूढ़ीवादी सोच की ज़ंजीरों को तोड़ने वाली ज़ायरा का काम अलगाववादियों और कट्टरपंथियों को पसंद नहीं आया

नई दिल्ली : अंग्रेज़ी में एक मशहूर कोट है 'Example is not the main thing in influencing others. It is the only thing' यानी किसी को प्रभावित करने के लिए उदाहरण देना प्रमुख ज़रूरत नहीं है, बल्कि इकलौती ज़रूरत है। लेकिन कश्मीर घाटी हमारे देश का एक ऐसा हिस्सा है, जहां अच्छी चीज़ों को प्राथमिकता नहीं दी जाती। और बुरे उदाहरण देकर वहां के युवाओं की आवाज़ दबाने की कोशिश की जाती है।

क्या आप कभी कल्पना कर सकते हैं, कि 21वीं सदी के भारत में आज भी एक ऐसी जगह है जहां फिल्म देखना और फिल्मों में काम करना एक गुनाह माना जाता है। ये सुनकर आपको झटका लगा होगा, लेकिन ये सच है। कश्मीर धाटी हमारे देश का वो हिस्सा है, जहां आज की तारीख में एक भी सिनेमा हॉल नहीं है। और वहां की लड़कियों का फिल्मों में काम करना, कट्टरपंथी लोगों को बर्दाश्त नहीं है। अगर कश्मीर की लड़कियां फिल्मों में काम करके सफल हो जाएं तो फिर उन्हें शाबाशी नहीं मिलती बल्कि उनके खिलाफ एजेंडा चलाया जाता है और उन्हें माफी मांगने पर मजबूर किया जाता है।

16 साल की ज़ायरा वसीम के साथ भी ऐसा ही हुआ है। ज़ायरा ने फिल्म दंगल में रेसलर गीता फोगाट के बचपन का किरदार निभाया था। ज़ायरा वसीम, कश्मीर की रहने वाली हैं। हाल ही में जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने ज़ायरा से मुलाकात की थी। जिसके बाद महबूबा मुफ्ती ने उनके काम की तारीफ करते हुए कहा था कि ज़ायरा से लोगों को सीख लेने की ज़रूरत है। लेकिन रूढ़ीवादी सोच की ज़ंजीरों को तोड़ने वाली ज़ायरा का काम, अलगाववादियों और कट्टरपंथियों को बिलकुल पसंद नहीं आया। और इन लोगों ने सोशल मीडिया पर ज़ायरा के लिए घटिया भाषा और अपशब्दों का इस्तेमाल किया। इससे ज़ायरा वसीम पर एक तरह का दबाव पड़ा और फिर बिना किसी ग़लती के ही ज़ायरा को पहले माफी मांगनी पड़ी और फिर बाद में स्पष्टीकरण देना पड़ा। लेकिन सवाल ये नहीं है, कि ज़ायरा ने पहले माफी मांगी और फिर स्पष्टीकरण दिया, सवाल ये है, कि उन्हें ऐसा करने के लिए किसने मजबूर किया?

अगर मैं आपसे ये पुछूं की, आपके लिए रोल मॉडल की परिभाषा क्या है, तो आपमें से ज़्यादातर युवा यही कहेंगे, कि आपके लिए रोल मॉडल वो है, जिसके नक्शे कदम पर चलते हुए आप क़ामयाब हो सकें। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि कश्मीर घाटी की रगों में नफरत के बीज बोने वाले अलगाववादियों के लिए रोल मॉडल की परिभाषा क्या है? अगर नहीं, तो इसे समझने के लिए आपको सबसे पहले एक तस्वीर दिखाना चाहता हूं।

ये तस्वीर हिजबुल मुजाहिद्दिन के आतंकवादी बुरहान वानी की है, जो इन दिनों सोशल मीडिया सोशल मीडिया पर वाइरल हो गई है। ये वर्ष 2017 का कैलेंडर है, जिसमें एक आतंकवादी को हीरो की तरह प्रोजेक्ट करने की कोशिश की गई है। आप ये भी कह सकते हैं, कि इस तरह का कैलेंडर जारी करके, अलगाववादी कश्मीर घाटी के युवाओं को ये बताने की कोशिश कर रहे हैं, कि एक आतंकवादी ही उनका रोल मॉडल है। 

इंटरनेट पर ऐसे कैलेंडर्स अलग-अलग जगहों से अपलोड किए जा रहे हैं। हालांकि, कुछ मामलों में स्थानीय लोगों के कैलेंडर्स के साथ फोटोशॉप के ज़रिये छेड़छाड़ करके भी आतंकवादियों की तस्वीरें लगाई गई हैं। लेकिन इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता, कि ऐसी तस्वीरों और ऐसे कैलेंडर्स को इंटरनेट के ज़रिए फैलाया जा रहा है। 

ऐसे में बात एक बार फिर वहीं पर आ जाती है कि हमेशा आतंकवादी और कट्टरपंथी ही कश्मीर के पोस्टर ब्वॉयज क्यों बन जाते हैं? कोई पॉजिटिव और प्रतिभाशाली व्यक्ति कश्मीर का नायक क्यों नहीं बन सकता? आज कश्मीर घाटी के युवाओं के साथ-साथ पूरे देश को ये तय करना होगा, कि कश्मीर का रोल मॉडल कौन है? 

हमें लगता है, कि कश्मीर की असली आवाज़, 16 साल की ज़ायरा वसीम हैं, जिन्होंने अपने सपने को चुना। कश्मीर की असली रोल मॉडल नन्हीं तजामुल इस्लाम है जिसने वर्ल्ड किकबॉक्सिंग चैंपियनशिप में देश और अपने राज्य के लिए गोल्ड मेडल जीता। कश्मीर के असली रोल मॉडल आमिर हुसैन लोन है, जिन्होंने दिव्यांग होने के बावजूद अपनी कमज़ोरी को, अपनी ताकत बनाया। दोनों हाथ ना होने के बावजूद आमिर गर्दन के सहारे बैटिंग करते हैं और पैरों से बॉलिंग करते हैं। 

कश्मीर के असली रोल मॉडल बडगाम ज़िले के वो बच्चे हैं, जिन्होंने हाल ही में भूटान में हुई इंटरनेशनल चैंपियनशिप ऑफ मार्शल आर्ट्स में 6 गोल्ड मेडल और 1 सिल्वर मेडल जीते थे। लेकिन ये दुर्भाग्य की बात है, कि कोई इनकी बात नहीं करता। इन सबमें ज़ायरा वसीम की कोशिश काफी क्रांतिकारी है क्योंकि उन्होंने तमाम रूढ़िवादी विचारों को तोड़ते हुए फिल्मों में काम किया। जिस कश्मीर घाटी में एक भी सिनेमा हॉल नहीं है। वहां की एक लड़की फिल्मों में काम करती है तो वो एक नया उदाहरण पेश करती है।

DNA में हमने समय-समय पर आपको कश्मीर से ग्राउंड रिपोर्टिंग की मदद से ये जानकारी दी है, कि कश्मीर की असली आवाज़ वो है, जो या तो आप तक पहुंचती नहीं या फिर उसे आपके पास आने नहीं दिया जाता। इसलिए आज कट्टरपंथियों को शर्मिंदा करने के लिए, कश्मीर के हर युवा की हौसला अफज़ाई करनी ज़रूरी है। आज हम ऐसे सभी कश्मीरी युवाओं की हिम्मत बढ़ाएंगे, जो पॉजिटिव सोच रखते हैं और देश और दुनिया के सामने एक अच्छी मिसाल पेश करना चाहते हैं।

इस ख़बर में विश्वसनीयता के पैमानों की बात करें तो पहला पैमाना ये है कि हमारा रिपोर्टर मौके पर मौजूद है या नहीं तो इस ख़बर में हमारा रिपोर्टर मौके पर मौजूद नहीं था। ये ख़बर सोशल मीडिया के ज़रिए हमारे पास आई।

दूसरा पैमाना है ख़बर की कसौटी- यानी ख़बर सत्यापित है या नहीं तो आपको बता दें कि ये ख़बर सत्यापित की गई है। इसके लिए हमने ज़ायरा वसीम के सोशल मीडिया अकाउंट्स के साथ-साथ अपने रिपोर्टर और कई सूत्रों की मदद ली है।

तीसरा पैमाना है एक्सपर्ट की राय - इस ख़बर में राजनीतिक हस्तियों और कश्मीर के आम लोगों की राय ली गई है।

और चौथा पैमाना ये है कि इस ख़बर में तकनीकी विश्वसनीयता है या नहीं यानी इस ख़बर में दिखाए गये वीडियो पर भरोसा किया जा सकता है या नहीं। इस ख़बर में जो तस्वीरें आप देखेंगे वो Zee News और तमाम न्यूज एजेंसीज के कैमरों से रिकॉर्ड की गई है। इसलिए आप इन पर भरोसा कर सकते हैं

आम तौर पर आपने देखा होगा कि कश्मीर की रिपोर्टिंग में आतंकप्रेमी गैंग का गुप्त एजेंडा छिपा हुआ होता है लेकिन हमने ऐसे पूर्वाग्रहों से खुद को बचाया है। ये नई तरह की पत्रकारिता है जिससे हम देश में सकारात्मक बदलाव लाना चाहते हैं। और इसलिए आज हमने ज़ायरा वसीम के सपनों को कुचलने वालों को आईना दिखाना ज़रूरी समझा। 

चीन के महान दार्शनिक और लेखक, लाओज़ी का कहना था, जब किसी देश में विरोध और शत्रुता की मात्रा बढ़ जाती है, तब सच्चे देशभक्त पैदा होते हैं और फलते फूलते हैं। कश्मीर के संदर्भ में ये बात बिल्कुल सटीक बैठती हैं क्योंकि वहां कुछ देशविरोधी तत्व, समाज के टुकड़े-टुकड़े करके, नफरत की सल्तनत क़ायम करना चाहते हैं।

-आपको ये जानकर हैरानी होगी, 1980 के दशक में एक वक्त ऐसा भी था, जब कश्मीर घाटी में एक या दो नहीं, बल्कि 15 सिनेमा हॉल्स हुआ करते थे।
-हिन्दी फिल्मों को लेकर कश्मीर के लोग काफी भावुक हुआ करते थे।
-कश्मीर घाटी के खयाम सिनेमा में फिल्म शोले की सिल्वर जुबली भी मनाई गई थी।
-लेकिन वर्ष 1989 में आतंकवाद की वजह से इन सभी सिनेमा हॉल्स को बंद करना पड़ा।
-ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि आतंकवादियों ने कश्मीर घाटी में सिनेमा हॉल्स को इस्लाम के ख़िलाफ बताया था।
-हालांकि, वर्ष 1999 में रीगल, नीलम और ब्रॉडवे नामक तीन सिनेमा हॉल्स को दोबारा शुरू किया गया। 

लेकिन उसी वर्ष श्रीनगर के रीगल सिनेमा में एक फिल्म के उद्घाटन शो के दौरान, आतंकवादियों ने ग्रेनेड से हमला कर दिया। जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई थी, जबकि 12 लोग घायल हो गए थे। सितम्बर 2005 में नीलम, सिनेमा हॉल को दोबारा शुरू किया गया। लेकिन जिस वक्त हॉल में आमिर ख़ान की फिल्म मंगल पांडे का शो चल रहा था, ठीक उसी वक्त आत्मघाती हमलावरों ने हमला कर दिया था।

पूरे देश के लिए इससे बड़ी शर्म की बात क्या हो सकती है, कि कश्मीर के सच्चे युवा, देश के हित की बात करते हैं। अच्छे भविष्य के सपने देखते हैं। लेकिन जब इन्हीं युवाओं की पूरी दुनिया में तारीफ होती है, तो लोग इन्हें हिन्दुस्तानी कहकर, वहां से चले जाने की धमकी देते हैं। सवाल ये है, कि इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है। क्या इसके लिए हमारे देश के नेता ज़िम्मेदार हैं? हमारा सिस्टम ज़िम्मेदार है? या फिर वो लोग ज़िम्मेदार हैं जो ख़ुद को कश्मीर का ठेकेदार समझते हैं? ये एक गंभीर विषय है, इस पर आप भी विचार कीजिएगा। यहां नोट करने वाली बात ये भी है कि कश्मीर घाटी में ही ये सब क्यों होता है? 

जम्मू कश्मीर राज्य को तीन भागों में बांटा जा सकता है-ये तीन हिस्से हैं जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। सोचने वाली बात ये है कि जम्मू और लद्दाख में सरकार के कानून चलते हैं किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं है। लेकिन कश्मीर घाटी में इन्हीं कानूनों को लागू करने में परेशानी होती है। जम्मू और लद्दाख में किसी को फिल्में देखने और किसी लड़की के फिल्म स्टार बनने से कोई आपत्ति नहीं होती है लेकिन कश्मीर घाटी में जाते ही फिल्में देखना और फिल्मों में काम करना गुनाह बन जाता है। ऐसा क्यों है इस पर हमें सोचना चाहिए।

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