डियर जिंदगी : तनाव की सुनामी और आशा के दीये...
जीवन पर ध्यान एकाग्र रहने से हम तनाव से दूर रह सकते हैं. यह तनाव है क्या. यह कल की आज चिंता करने से ही तो उपजा है.
दयाशंकर मिश्र
डर दो तरह के होते हैं. असली और ख्याली. पहले को ऐसे समझिए कि शेर आ गया, अब! दूसरा, अगर कहीं शेर मिल गया तो! पहला डर स्वाभाविक है, उसमें हमारी भूमिका बहुत सीमित है, क्योंकि जो करना है, वो तो उसे करना है. इराक पर अमेरिकी बमबारी में वहां रह रहे लोग क्या कर लेते. इसमें उनकी कोई भूमिका नहीं थी, इसलिए ऐसे डर से संघर्ष करना ही होगा. लेकिन हम अक्सर पूरी जिंदगी ऐसे डर के बीच नहीं गुजारते, बल्कि हम तो ताउम्र दूसरे डर से डरते हुए जीते देते हैं. कहीं ऐसा हो गया तो, कहीं वैसा हो गया तो. कहीं 'वह' नाराज हो गए तो. कहीं हम असफल हुए तो. कहीं मेरा प्रपोजल अस्वीकार हो गया तो. कहीं मेरा फैसला गलता हो गया तो. इत्यादि.
पहला डर कार चलाते समय दुर्घटना हो जाने जैसा है. जो कभी भी हो सकती है. इसका केवल एक हिस्सा आपके नियंत्रण में है. जीवन में इससे बहुत हानि नहीं होती. हमें उससे कहीं अधिक नुकसान दूसरे डर से है. हम इसी डर के चक्कर में अक्सर अटके रहते हैं. कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए, इसलिए यथास्थितिवादी बने रहते हैं. जब हम जिंदगी का सामना करने के लिए बाहर निकलेंगे तो 'खराब मौसम' से सामना होगा ही. जब तक जीवन है, खराब मौसम मिलेंगे ही. इसलिए ध्यान उस 'मौसम' पर नहीं जीवन की यात्रा पर दीजिए.
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जीवन पर ध्यान एकाग्र रहने से हम तनाव से दूर रह सकते हैं. यह तनाव है क्या. यह कल की आज चिंता करने से ही तो उपजा है. हम कल को लेकर हर पल इतने चिंतित रहने लगे कि चिंता हमारे जीवन की नियमित आशंका बन गई. इस आशंका से ब्लड प्रेशर, ब्लड शुगर और हाइपरटेंशन हमारे दरवाजे पर आकर बैठ गए. हम आज को जीने की जगह कल को संवारने में जुट गए.कल की चिंता करना गलत नहीं है, इसमें भला कैसी गलती, लेकिन कल की चिंता में आज के सुकून को तो नहीं जलाया जा सकता. संभावना का हाथ तलाशते रहना एक बात है और उसकी चिंता में घुलनशील होना एकदम अलग बात है.
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हमारे आसपास का जीवन ही हमारा सबसे बड़ा शिक्षक है. बच्चों को जो शिक्षा उनका परिवेश देता है. संघर्ष करने की जो क्षमता वह अपने समाज से अर्जित करते हैं, वह उन्हें अकेले स्कूल से नहींमिल सकती. इस समय की इकलौती परेशानी यही है कि हम गैरजरूरी चीजों में उलझ गए हैं. हम कल की सुनहरी आशा से कटकर चिंताओं के बाजार में उलझ गए हैं.
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हमारा फोकस जीवन की गुणवत्ता, उसकी सुंदरता, उसके संघर्ष में नहीं, बल्कि दूसरों के जैसे होने में हो रहा है. यह जीवनशैली हमें तेजी से तनाव की ओर धकेल रही है. हम असल डर से नहीं डररहे हैं. हम तो अपने बनाए डर से हर पल मर रहे हैं. हमारे शरीर की सांस तो चल रही है, लेकिन हमारे विचार, सोच, सहनशीलता का हर पल क्षरण हो रहा है. इसलिए सबसे जरूरी है कि हम जीवन को तनाव की सुनामी से बचाएं. जब तक आशा का दीपक मन की गहराई में नहीं दमकेगा, हम तनाव की खाई की ओर बढ़ते रहेंगे...
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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