बेरूखी से बर्बाद और बदहाल होता `अन्नदाता`
किसानों की बेबसी, लाचारी, उसकी तकलीफें आज टीवी चैनलों और अखबारों की सुर्खियां बनती है। किसान फसलों की बर्बादी की वजह से खुदकुशी कर रहे हैं। कहीं कोई किसान, तो किसी जगह पर किसान का पूरा परिवार खुदकुशी कर रहा है। हम इन खबरों को पढ़कर विचलित नहीं होते क्योंकि इनसे हमारा सरोकार ना के बराबर होता है। लेकिन एक बार अगर आप मदर इंडिया फिल्म मौका निकालकर देखें (ना देखी हो तो) आपकी आंखें भर आएंगी। इस फिल्म में किसानों की बदहाल और दर्दनाक तस्वीर को बेहद बारीकि से सेल्यूलाइड के पर्दे पर दिखाया गया था। कैसे एक किसान साहूकार के हाथों कर्ज के बोझ से दबता चला जाता है और उसकी जिंदगी ही नहीं बल्कि पूरा परिवार तबाह हो जाता है।
आज की तारीख में भी हालात उसी फिल्म के सिनेमाई किरदारों की तरह ही है। काल और पात्र भले बदल गए हो लेकिन किसानों के हालात अब भी दर्दनाक है जिसकी सुध आजादी के 68 साल बीतने के बाद भी किसी सरकार ने नहीं ली है। लिहाजा किसान अब भी बदहाली और बर्बादी के कगार पर खड़ा है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की रैली में एक किसान की खुदकुशी बस एक बानगी भर है। देश के पटल पर इसका स्वरुप काफी भयावह है। लेकिन अफसोस इस मुद्दे पर संवेदनशील होने और कुछ कर गुजरने की बजाय सियासत की रोटियां सेंकी जा रही है।
भारत के विकास दर और जीडीपी के आंकड़े बिजनेस पेज और टीवी के पर्दे पर बड़े ही अच्छे दिखते है। लेकिन यह भी एक बड़ा सच है कि हर आधे घंटे में भारत की जीडीपी में करीब साढ़े छह अरब रुपये जुड़ जाते हैं और हर आधे घंटे में एक किसान खुदकुशी कर रहा होता है। इन आंकड़ों को माने तो प्रतिदिन लगभग 50 किसान खुदकुशी कर अपनी जीवनलीला खत्म कर देता है। इसका सीधा असर उन पचास परिवारों पर पड़ता है जो उससे जुड़े हुए है। किसानों के लिए खेती अब जुआ साबित होता जा रहा है क्योंकि ऐसा नहीं होता तो 2001 से 2011 की जनगणना के बीच देश में 77 लाख किसान कम हो गये? अगर खेती मुनाफे का सौदा होती तो ये किसान खेती क्यों छोड़ते। किसानों के खुदकुशी के आंकड़े भयावह है जो यह बताते है कि उनके लिए सतही तौर पर कुछ भी नहीं किया जा रहा है। 31 मार्च 2013 तक के आंकड़े बताते हैं कि 1995 से अब तक 2,96 438 किसानों ने आत्महत्या की है । गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यह तस्वीर बड़ी है जिसे हमेशा छुपाकर पेश किया जाता है।
महाराष्ट्र सरकार की ओर से हाल ही जारी आंकड़ों के मुताबिक, जनवरी से मार्च 2015 तक प्रदेश में 601 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यानी महाराष्ट्र में हर रोज करीब 7 किसान सुसाइड कर रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2014 में महाराष्ट्र में करीब 1981 किसानों ने सुसाइड किया था। इस हिसाब से पिछले साल की तुलना में इस बार सुसाइड का आंकड़ा करीब 30 फीसदी तक बढ़ गया है। महाराष्ट्र के विदर्भ में खुदकुशी के सबसे ज्यादा मामले सामने आए हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस भी विदर्भ इलाके से हैं। और हालात यह है कि जनवरी से लेकर मार्च तक विदर्भ में 319 किसानों ने आत्महत्या कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी। मुआवजे का कोई भी मरहम इनके घावों को इतने साल बाद भी नहीं भर सका है। बल्कि हालात बद से बदतर होते चले जा रहे है।
भारत कृषि प्रधान देश है और यह घोर त्रासदी है कि आज धरती-पुत्र किसान, आत्महत्या करने को मजबूर हो रहा है। राष्टीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरों के मुताबिक 1995-2010 के पंद्रह साल में 2 लाख 56 हजार 949 किसानों ने खुदकुशी की। एनसीआरबी के रिकार्ड के मुताबिक देश में 1997 से 2003 के बीच औसतन 16 हजार 267 किसानों ने प्रति वर्ष और कुल 1,13,872 किसानों ने आत्महत्या की। 2004 से 2009 में प्रति वर्ष 17,105 किसानों ने और कुल 1,02,628 किसानों ने तंग आकर खुदकुशी कर अपनी जीवनलीला खत्म कर दी। ‘फारमर्स स्यिूसाइड इन इंडिया, मैग्नीट्यड्स टेऊड्स एण्ड स्पैशियल पैंटर्स’ के. नागराज, 2008 के सर्वे के मुताबिक 1997-2006 के बीच देश में 1,66,304 किसानों ने आत्महत्या की जबकि 1995 से 2006 के बीच 2 लाख किसानों ने आत्महत्या की।
यह बिल्कुल सच बात है कि आजादी के 68 साल बाद भी किसानों की समस्याओं और उनकी तकलीफों को समझा ही नहीं गया। अगर समझा गया होता तो उन्हें दूर करने के लिए रणनीति बनाई गई होती। इस बार देशभर के किसान फसलों की बर्बादी से परेशान है और खुदकुशी करने पर आमादा है लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से वैसा कोई कदम नहीं उठाया गया है जिससे उन्हें फौरी राहत मिल सके। जहां तक मुआवजे की 'भीख' का सवाल है तो वह और भी ज्यादा दुखद और हास्यास्पद है। किसानों को कितना नुकसान हुआ, इसके आकलन की कोई व्यवस्था ही नहीं है। सरकारी अधिकारी ऑफिस में बैठक मुआवजा तय कर देते है ।
75 रुपये ,100 रुपये , 250 रुपये और 500 रुपये ये मुआवजे की वह रकम है जो हाल ही में कुछ राज्यों की सरकारों ने बदहाली के मारे किसानों को बांटकर मीडिया में वाहवाही लूटी है। आप अंदाजा लगा सकते है कि जो किसान खेती करता है क्या उसके लिए मुआवजे के इस मरहम भरे 'मजाक' से क्या उसकी भरपाई हो सकती है। किसान राज्य सरकार और केंद्र सरकार की बेरूखी से निराश है इसलिए उसे कोई उपाय नहीं सूझता है और वह खुदकुशी करने पर आमादा है। सरकार हर बार मुआवजे का मरहमे लगाती है लेकिन यह मुआवजा ढांक के तीन पात की तरह साबित होता है। हालात अब भी वही है। घोषणाएं जरूर होती है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। किसान भी यह सोच चुके है हालात अब नहीं बदलेंगे लिहाजा वह खुदकुशी कर अपनी जीवनलीला खत्म कर रहे है।