MRP Benefits: कब हुई MRP की शुरुआत और किस वजह से?
Consumer Rights: दुकानदार किसी भी चीज की बेचने की अधिकतम कीमत से ज्यादा दाम नहीं ले सकता, बावजूद इसके अगर कोई ऐसा करता है तो उपभोक्ता विभाग में उसकी शिकायत दर्ज कर सकते हैं.
Maximum Retail Price: हम जब भी कोई चीज खरीदते हैं, तो उस प्रोडक्ट की एमआरपी चेक करके ही उसके दाम चुकाते हैं. दुकानदार भी मैक्सिमम रिटेल प्राइस (Maximum Retail Price) के हिसाब से ही पैसे लेता है, लेकिन एमआरपी से ज्यादा रुपये मांगने पर आप कंज्यूमर विभाग में उसकी शिकायत कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा करना कानूनन अपराध है.
हालांकि, हमेशा से ऐसा नहीं था, पहले हर जगह चीजें एक ही दाम में नहीं मिलती थीं, जिससे कारण दुकानदार ग्राहकों से मनमाने दाम वसूलते था. अधिकतम खुदरा मूल्य की शुरुआत होने के बाद हुआ. क्या आप जानते हैं कि MRP की शुरुआत कब और किस वजह से हुई. आइए जानते जानते हैं...
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम
मैक्सिमम रिटेल प्राइस मतलब किसी भी प्रोडक्ट पर लिखी तय कीमत से ज्यादा दाम पर उस सामान को बेचा नहीं जा सकता. भारत में इसे लेकर उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम कानून बनाया गया है, जो साल 1986 में पारित हुआ था. इसके कानून के तहत उपभोक्ताओं को 6 अधिकार मिले हैं. इसमें खरीदारी करते समय उपभोक्ताओं के साथ किसी भी तरह की समस्या होने पर उनकी सहायता का प्रावधान है.
कब बना MRP लागू करने का नियम?
केंद्र सरकार ने साल 2006 में सभी प्रोडक्ट पर एमआरपी लागू करने का नियम बनाया. इसके तहत दुकानदार पैक्ड सामान, इलेक्ट्रॉनिक आइटम, या कुछ सामान बिना एमआरपी के नहीं बेच सकता. अगर वह ऐसा करता है तो फिर यह कानूनन अपराध होगा, जिसके लिए उसे मोटा जुर्माना देना पड़ सकता है.
तय होते हैं पैक्ड प्रोडक्ट्स के दाम
मौसम या डिमांड के मुताबुक अक्सर ही फलों और सब्जियों के दाम अचानक से बहुत बढ़ जाते हैं, जिन्हें उसी रेट में खरीदना ग्राहकों की मजबूरी होती है. जबकि, दुकानों, शापिंग मॉल्स आदि में मिलने वाले पैक्ड प्रोडक्ट की एमआरपी तय होती है और उपभोक्ता एमआरपी से ज्यादा कीमत देने के लिए बाध्य नहीं होता.