The first woman ambassador of independent India: भारत में कई महिला राजनयिक, राजदूत और उच्चायुक्त हैं, जिन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, स्पेन, श्रीलंका, ऑस्ट्रेलिया, लेबनान, बांग्लादेश, कतर, स्विट्जरलैंड, सर्बिया, रूस, स्लोवाकिया और घाना जैसे देशों में काम किया है. 


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1949 में सर्विस में शामिल होने पर भारत की पहली IFS महिला अधिकारी चोनिरा बेलियप्पा मुथम्मा को जिस तरह का सामना करना पड़ा था, यह उससे बहुत अलग है. एक ऐसे युग में जब ज्यादातर भारतीय महिलाओं ने विदेश सेवा में जाने की कोशिश भी नहीं की थी, इस साहसी कोडवा महिला ने यूपीएससी क्वालीफाई करते समय सिर्फ आईएफएस को ही नहीं चुना, उन्होंने लैंगिक भेदभाव से लड़ाई लड़ी, वह अडिग रहीं और भारत की पहली महिला राजदूत बनीं.


1924 में कर्नाटक के कोडागु (तत्कालीन कूर्ग) जिले के विराजपेट में जन्मीं, मुथम्मा ने अपने पिता को 9 साल की उम्र में ही खो दिया था, वह एक वन अधिकारी थे. अपनी मां के अकेले दम पर पली-बढ़ी, मुथम्मा ने ट्रिपल गोल्ड मेडल के साथ चेन्नई (तब मद्रास) में महिला क्रिश्चियन कॉलेज से ग्रेजुएशन की. उन्होंने मदिकेरी के सेंट जोसेफ गर्ल्स स्कूल में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की.


मुथम्मा ने यूपीएससी परीक्षाओं में शामिल होने का निर्णय लेने से पहले चेन्नई के प्रेसीडेंसी कॉलेज से इंग्लिश लिटरेचर में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया, 1948 में यूपीएससी परीक्षाओं को पास करने वाली पहली भारतीय महिला बनीं. वह भारतीय विदेश सेवा में शामिल होना चाहती थीं, लेकिन जिस बोर्ड ने उनका इंटरव्यू लिया, उसने उन्हें इस सेवा को महिलाओं उपयुक्त नहीं बताते हुए इसमें शामिल नहीं होने की सलाह दी.


हालांकि, मुथम्मा अपनी पसंद की सेवा पाने के लिए दृढ़ थी. उन्होंने दृढ़ता से अपने मामले पर बहस की, वह अडिग रहीं और 1949 में भारत की पहली IFS महिला अधिकारी बनकर विदेश सेवा में शामिल हुईं. अविश्वसनीय रूप से, उन्हें एक वचनपत्र पर हस्ताक्षर करना पड़ा जिसमें कहा गया था कि अगर वह शादी कर लेती हैं तो वह इस्तीफा दे देंगी. हालांकि, कुछ साल बाद नियमों को बदल दिया गया.


अगले कुछ दशकों तक मुथम्मा ने यूरोप, एशिया और अफ्रीका में अपनी सेवाएं दीं. हालांकि, उन्हें अपने राजनयिक करियर के दौरान लैंगिक पूर्वाग्रह के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा. लंबे समय तक विदेश सेवा में सर्विस देने के बावजूद, जब उन्हें एक राजदूत के रूप में तैनात करने की बात आई तो उनके मामले को नजरअंदाज कर दिया गया.


आखिर में साल 1979 में न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर ने सरकार के तर्क को खारिज कर दिया, विदेश सेवा कर्मियों को नियंत्रित करने वाले भेदभावपूर्ण प्रावधानों को खत्म कर दिया और मुथम्मा के मामले को बरकरार रखा.


इस फैसले के परिणामस्वरूप, मुथम्मा को हंगरी में भारत के राजदूत के रूप में नियुक्त किया गया, जो इस प्रतिष्ठित पद पर नियुक्त होने वाली सेवा के भीतर पहली महिला थीं. बाद में, उन्होंने घाना में सेवा की और उनकी आखिरी पोस्टिंग नीदरलैंड में भारतीय राजदूत के रूप में थी. 32 साल की सेवा के बाद वह 1982 में IFS से रिटायर हुईं.


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