Lok Sabha Elections 2024: लगभग तीन महीने चले लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया के बाद आए नतीजों ने सभी को चौंकाया है.  भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को बहुमत तो मिला है लेकिन बीजेपी 240 सीटें ही जीत पाई. इस तरह पिछले लोकसभा चुनाव में 300 से ज्यादा सीटें जीतने वाली बीजेपी अपने दम पर बहुमत भी हासिल नहीं कर पाई. जबकि चुनाव से पहले कहा जा रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने कोई विकल्प नहीं है. ऐसे में माना जा रहा है कि TINA फैक्टर के कारण पीएम मोदी की पार्टी बीजेपी बहुतम के आंकड़े से दूर रह गई. 


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आइए समझते हैं कि TINA फैक्टर क्या है और इसके चर्चा में आते ही सत्ताधारी पार्टी हार कैसे जाती है?


TINA का मतलब है- There Is No Alternative. इस टर्म का इस्तेमाल सबसे पहले 1980 के दशक में ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर ने किया था. टीना का अर्थ है कि इस एक के अलावा कोई विकल्प नहीं है. इसे ऐसा भी समझा जा सकता है कि हमें यह पसंद नहीं है लेकिन हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं है.


लेकिन भारत का राजनीतिक इतिहास साबित करता है कि जब चुनाव नतीजों की बात आती है तो TINA फैक्टर को कभी भी पहले से तय नतीजों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. जब-जब नेताओं को लगता है कि उनके सामने कोई विकल्प नहीं है तब-तब जनता उन्हें जोर का झटका देती है.


कब-कब TINA ने चौंकाया?


फरवरी 1988 में चुनाव से पहले इंडिया टुडे ने लोकसभा चुनाव को लेकर एक सर्व किया. इस सर्वे में दावा किया गया कि मतदाता का संदेश सरल और सीधा है- विपक्ष में एकजुटता की कमी के कारण प्रधानमंत्री राजीव गांधी के अलावा कोई विकल्प नहीं है. 


भले ही राजीव गांधी सरकार को बोफोर्स, फेयरफैक्स, बढ़ती आर्थिक समस्याओं से जूझना पड़ रहा हो,  लेकिन राजीव गांधी अभी भी देश की पहली पसंद बने हुए हैं. लेकिन चुनाव के नतीजों ने सबको चौंकाया. 


इस सर्वे के कुछ ही महीने बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस अपनी आधी से ज्यादा सीटें हार गईं. 1989 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यह संदेश दिया कि भारत के संसदीय लोकतंत्र में चुनाव दो नेताओं के बीच कम स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा लड़े जाते हैं.


TINA ने जब वाजपेयी को चौंकाया


2004 के लोकसभा चुनाव में भी एक बार TINA चर्चा में आया. उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे. चुनाव से पहले कहा जा रहा था कि वाजपेयी के सामने कोई विकल्प ही नहीं है. पहले गैर-कांग्रेसी नेता के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने  लगातार 5 साल सरकार चलाई.  चुनाव में उन्होंने 'इंडिया शाइनिंग' का नारा दिया और इसके प्रचार में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए गए. इसके बावजूद वाजपेयी को हार का सामना करना पड़ा.


किसी ने भी 2004 में उलटफेर की भविष्यवाणी नहीं की थी क्योंकि कोई भी यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि इतने लोकप्रिय प्रधानमंत्री के नेतृत्व में पार्टी को हार मिल सकती है. जबकि कुछ ही महीने पहले भाजपा ने तीन राज्यों में शानदार जीत दर्ज की थी. 


2024: बहुमत आंकड़े से दूर रही बीजेपी


लोकसभा चुनाव होने से पहले इस लोकसभा चुनाव में भी यही कहा जाता रहा कि प्रधानमंत्री मोदी के सामने कोई विकल्प नहीं है. बीजेपी को लेकर लोगों में नाराजगी तो है लेकिन सामने कोई विकल्प नहीं है. चुनाव से कुछ महीने पहले राम मंदिर के उद्घाटन के बाद तो बीजेपी की लोकप्रियता में कोई शक नहीं रह गया था. 


चुनावी नतीजों से एक दिन पहले लगभग सभी एग्जिट पोल ने भी यही दिखाया कि बीजेपी प्रचंड बहुमत से सत्ता में वापसी कर रही है. शायद यह भी संभव है कि इस बार एनडीए 400 का आंकड़ा पार कर जाए. लेकिन जब चुनाव के नतीजे सामने आए तो चौंकाने वाले थे. बीजेपी अपने दम पर बहुमत भी हासिल नहीं कर पाई.