72 Hoorain Review: हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन..., बिना सनसनी के बात करती है यह फिल्म
72 Hoorain Film Review: रिलीज से पहले ही विवादों में घिरी 72 हूरें (72 Hoorain) बीते डेढ़ साल में आई द कश्मीर फाइल्स (The Kashmir Files) और द केरल स्टोरी (The Kerala Story) से बिल्कुल अलग है। यह आतंकवाद (Terrorism) की जड़ों और इस समस्या को एक अगल नजरिये से देखती है। फिल्म बताती है कि बर्बर हिंसा (Violence) और हैवानियत की कोई राह जन्नत तक नहीं जाती...
72 Hoorain Movie Review: हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन/दिल के खुश रखने को ‘गालिब’ ये खयाल अच्छा है. करीब 200 साल पहले शायरों के शायर मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) यह बात जिस खूबसूरत अंदाज में कह गए, उसकी दूसरी मिसाल मुश्किल है. दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार (National Awards) जीत चुके फिल्म निर्देशक संजय पूरन सिंह चौहान (Sanjay Puran Singh Chauhan) की फिल्म 72 हूरें भी जन्नत की बात करती है. मगर इसका अंदाज-ए-बयां अलग है. अपने समय के हिसाब से है. यह अलग बात है कि आतंकी का कोई धर्म, कोई जात नहीं होती. लेकिन यह भी सच है कि धर्म और जाति के आधार पर इंसानों को दूसरों से भेदभाव करना, नफरत करना भी सिखाया जाता है. 72 हूरें यह बताती है. इसकी कहानी के केंद्र में वे कट्टर मौलवी हैं, जो युवाओं को अल्लाह के नाम पर भड़काते हैं. साथ ही यहां वे युवा भी हैं, जो निजी कमजोरियों या पारिवारिक मजबूरियों के चलते गुमराह हो जाते हैं.
मौलवी की तकरीर
72 हूरें में द कश्मीर फाइल्स (The Kashmir Files) और द केरल स्टोरी (The Kreala Story) जैसी सनसनी नहीं है. इसकी शायद दो वजहें हैं. एक तो यहां मुद्दे की बात है. दूसरे पूरी कहानी उस दूसरी दुनिया की है, जहां इंसानी शोर-शराबा और हाय-तौबा नहीं है. फिल्म की शुरुआत होती है एक मौलवी की तकरीर से. वह युवाओं को बता रहा है कि अगर जिहाद की जंग में शहीद हो गए तो जन्नत के दरवाजे पर उनका स्वागत हूरें करेंगी. एक-एक जवान को 72 हूरें मिलेंगी. वे जब तक एक पर से नजर नहीं हटा पाएंगे, तब तक दूसरी उनके इंताजर में रहेगी. मौलवी बताता है कि शहीद होने वाले एक-एक नौजवान को 40-40 मर्दों के बराबर ताकत मिलेगी. सोचिए, कितना मजा नहीं मिलेगा फिर.
एक लंबा इंतजार
72 हूरें की कहानी पाकिस्तान (Pakistan) से हिंदुस्तान (India) में घुस आए, दो आतंकियों (Terrorists) हाकिम (पवन मल्होत्रा) और बिलाल (आमिर बशीर) की है. दोनों ने मुंबई (Mumbai) के गेटवे ऑफ इंडिया (Gateway Of India) पर धमाका किया है, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए. हाकिम और बिलाल मौलवी की तकरीर सुनकर फिदायीन आतंकी बने थे. मरने के बाद अब उनकी रूहें, मुंबई के आसमान में हैं. दोनों आसमान छूती इमारतों के गुंबद से नीचे का हाल देख रहे हैं और इंतजार में हैं कि कब उन्हें लेने के लिए फरिश्ते आएंगे, कब जन्नत का दरवाजा खुलेगा और कब वो हूरें नसीब होंगी, जिन्हें लेकर उन्होंने जाने क्या-क्या कल्पना कर रखी है. उनका इंतजार बढ़ता जाता है. घंटों से दिन, दिन से हफ्ते, हफ्तों से महीने और फिर साल-दर-साल.
अल्लाह की राह
72 हूरें का मैसेज साफ है. फिल्म कुरान (Quran) और अल्लाह (Allah) के संदेश की ही बात करती कि एक भी बेकसूर की जान लेना, इंसानियत का कत्ल करना है. धीरे-धीरे आप पाते हैं जो खुद को शहीद समझकर जन्नत के दरवाजे खुलने का इंतजार कर रहे, उन्हें हकीकत समझ आने लगती है. उन्हें एहसास होता है कि वे जिस रास्त पर चले, वह गुनाह का रास्ता था. अल्लाह की राह नहीं थी. लेकिन उन्हें इस गुनाह की तरफ धकेलने का जिम्मेदार कौनॽ वह मौलवी जिसने उन्हें झूठी बातें सिखाई, समझाई और जन्नत के ख्वाब दिखाकर बरगलाया. निर्देशक संजय पूरन सिंह चौहान की फिल्म अपने संदेश में बहुत स्पष्ट है. इसमें आपको फिल्मी लटके-झटके या सनसनी पैदा करने वाली बातें नहीं मिलेंगी. फिल्म पूरी तरह से मरने के बाद हाकिम और बिलाल को होने वाले एहसास को बयान करती है.
रूह हैं, रंग नहीं
72 हूरें ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म (Black And White Film) है. संजय ने रूहों की कहानी दिखाई है, इसलिए यहां रंग गायब हैं. साथ ही इंसानियत के खिलाफ होने वाले जिन हादसों की वह बात कर रहे हैं, उसमें कोई रंगीनी नहीं है. ऐसे में उनका यह श्वेत-श्याम प्रयोग बिल्कुल ठीक मालूम पड़ता है. आप 72 हूरें को आम बॉलीवुड फिल्म की तरह नहीं देख सकते क्योंकि निर्देशक ने सीन किसी आर्ट फिल्म की तरह फिल्माए हैं. वे धीमे और लंबे हैं. कहीं-कही स्लो-मोशन में हैं. ऐसे में फिल्म शुरू होने के कुछ मिनटों बाद, जैसे ही सारा मामला साफ होता है, आपको धैर्य से अपनी कुर्सी पर बैठे रहना पड़ता है क्योंकि यहां कुछ ऐसा सनसनीखेज नहीं घटता, जो खून की रफ्तार बढ़ा दे. कहानी धीमी रफ्तार से बढ़ती है. करीब 115 मिनट की इस फिल्म में 50 मिनट हाकिम, बिलाल और उनकी बातें ही पर्दे पर होती हैं.
सहमत या असहमत
पवन मल्होत्रा (Pawan Malhotra) और आमिर बशीर (Aamir Bashir), दोनों ने अपने किरदार बढ़िया ढंग से निभाए हैं. फिल्म में कसावट है. लेकिन संवाद कुछ बेहतर हो सकते थे. चिरंतन दास का कैमरावर्क बढ़िया है और कुछ सीन वाकई चौंकाते हैं. मगर वीएफएक्स के मामले में फिल्म कई जगहों पर बहुत कमजोर है. इस फिल्म से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन एंटरटेनमेंट के लिए इसे नहीं देख सकते. इस फिल्म के लिए संजय पूरन सिंह चौहान को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का दूसरा नेशनल अवार्ड मिला है. पहला अवार्ड उन्हें फिल्म लाहौर (2010) के लिए मिला था. अगर लाहौर न देखी हो, तो अवश्य देख लें.
निर्देशकः संजय पूरन सिंह चौहान
सितारे: पवन मल्होत्रा, आमिर बशीर, राशिद नाज, सारू मैनी, नरोत्तम बेन
रेटिंग**1/2