नई दिल्ली: कवि फैज अहमद फैज (Faiz Ahmad Faiz) की कविता को लेकर चल रही कंट्रोवर्सी पर गुलजार (Gulzar) ने कहा कि यह फैज साहब जैसे महान कवि के साथ अन्याय है. उनकी रचना, उनकी कविता के साथ अन्याय है. इतने बड़े लेवल के कवि को रिलीजन और मजहब लेकर इस तरह से बोलना मुनासिब नहीं है. उन लोगों के लिए गलत है, जो ऐसा कर रहे हैं. उनकी रचना 'जिया उल हक' के जमाने की है, उसे आउट ऑफ कॉन्टेक्स्ट जोड़ना उन लोगों के लिए गलत है जो कि इसे इस तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं. किसी भी रचना को उसके कार्यकाल या उस समय जब रचना लिखी गई थी, उस समय के कॉन्टेक्स्ट को लेकर ही पढ़ा और समझा जाना चाहिए.


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शायरी पर सवाल
पाकिस्तान के शायर फैज अहमद फैज की एक नज्म को लेकर ऐसी ही बहस छिड़ी हुई है. इस नज्म के शुरुआती बोल हैं: 


'हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है...'


इसी नज्म के बीच में कुछ पंक्तियां आती हैं जिन्हें लेकर विवाद छिड़ गया है और कहा जा रहा है कि ये पंक्तियां हिंदू विरोधी हैं. इन पंक्तियों में कहा गया है:


'जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का जो गाएब भी है हाजिर भी...'


इसका जो अर्थ निकाला जा रहा है, वो ये है कि एक दिन अल्लाह की इस ज़मीन से सभी बुत यानी मूर्तियां उठवा दी जाएंगी और सिर्फ अल्लाह का ही नाम रहेगा. इन पंक्तियों को हिंदू विरोधी कहा जा रहा है क्योंकि हिंदू धर्म में मूर्ति पूजा का विशेष स्थान है जबकि इस्लाम में मूर्ति पूजा यानी बुतपरस्ती को गुनाह माना गया है. इसी तरह ये कहना कि एक दिन ऐसा आएगा जब सिर्फ अल्लाह का नाम रहेगा, ये भी इस शायरी के विरोधियों को पसंद नहीं आ रहा. इसी को लेकर IIT कानपुर में एक शिकायत दर्ज की गई है. 17 दिसंबर को नए नागरिकता कानून के विरोध में IIT कानपुर में भी विरोध प्रदर्शन हुआ था और इस प्रदर्शन के दौरान कुछ छात्रों ने फैज़ की ये नज़्म गाई. शिकायतकर्ता ने इसकी कुछ पंक्तियों को हिंदू विरोधी बताया है और अब IIT कानपुर ने इस प्रदर्शन से जुड़ी अलग-अलग शिकायतों की जांच करने के लिए एक कमेठी का गठन किया है. यानी एक नज़्म दो गुटों के बीच जंग की वजह बन गई और अब इस मामले ने तूल पकड़ लिया है. हैरानी की बात ये है कि ये नज्म इन दिनों देशभर की ऐसी तमाम यूनिवर्सिटी में गाई जा रही हैं, जहां नए नागरिकता कानून के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं लेकिन अब IIT कानपुर ने इस मामले की जांच शुरू कर दी है. 


समर्थन में दलील
जो लोग इस नज़्म के समर्थन में हैं. वो तर्क देते हैं कि फैज़ खुद एक नास्तिक और वामपंथी विचारधारा वाले थे और उन्होंने ये नज़्म पाकिस्तान के तानाशाह जनरल ज़िया उल हक के विरोध में लिखी थी. जिया उल हक ने वर्ष 1977 में पाकिस्तानी सरकार का तख्ता पलट कर दिया था. फैज़ के समर्थक कहते हैं कि वो हिंदू विरोधी नहीं थे. उन्होंने इस नज़्म में बुत उठवाए जाने का जो जिक्र किया वो दरअसल तानाशाही के खिलाफ कही गई पंक्तियां हैं और बुत यानी मूर्ति शब्द यहां सत्ता का प्रतीक है. जबकि अल्लाह का जिक्र इस मायने में किया गया है कि जब जनविरोधी और तानाशाही सत्ता का अंत होगा तब सिर्फ उस आध्यात्मिक ताकत का राज होगा जो हम सबके भीतर है. यानी फैज़ यहां पर 'अहम्‌ ब्रह्मास्मि' जैसी बात कर रहे हैं. यानी असली ईश्वर असली अल्लाह इंसान के भीतर छिपा है. बस उसे पहचनाने की देर है.


विरोधियों का तर्क
फैज़ और उनकी नज़्मों का विरोध करने वाले कह रहे हैं कि अगर फैज़ क्रांतिकारी, नास्तिक और धर्म निरपेक्ष थे तो उन्होंने वर्ष 1947 में आज़ादी के वक्त इस्लाम के आधार पर बनाए गए पाकिस्तान को क्यों चुना? फैज़ का विरोध करने वाले लोग इस बात से भी सहमत नहीं है कि फैज़ अहमद फैज़ तानाशाही के विरोध में थे. इन लोगों के मुताबिक, पाकिस्तान में ज्यादातर समय तानाशाहों का ही शासन रहा है. इसलिए अगर फैज़ को इसका विरोध करना था तो वो पहले भी कर सकते थे.


IIT कानपुर के ही एक प्रोफेसर वशी शर्मा कहते हैं कि बुतपरस्ती का विरोध करने वाली ये नज़्म दरअसल उसी सोच की परिचायक है जिसके तहत मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नी, अल्लाउदीन खिलजी, बाबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगज़ेब और टीपू सुल्तान जैसे शासकों ने हिंदुओं का शोषण किया था, मंदिर लूटे थे, मूर्तियों को नष्ट कर दिया था और मूर्ति पूजा करने वाले हज़ारों हिंदुओं की हत्या भी की थी. इस पूरे विवाद को लेकर उत्तर प्रदेश की सरकार भी बहुत गंभीर है. उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा का कहना है कि कविताओं और शायरी का इस्तेमाल लोगों को बांटने के लिए नहीं बल्कि जोड़ने के लिए किया जाना चाहिए. लेकिन सवाल ये है कि अगर कोई कविता या शायरी धर्म विरोधी, सरकार विरोधी या फिर जन विरोधी है तो उसके प्रसार को सोशल मीडिया के ज़माने में रोकना किस हद तक संभव है?


कहा जाता है कि फैज अहमद फैज ने ये नज्म पाकिस्तान के तानाशाह जनरल ज़िया उल हक के विरोध में लिखी थी और तब पाकिस्तानी सरकार ने इस पर पाबंदी लगा दी थी. 1985 में ज़िया उल हक ने पाकिस्तान में औरतों के साड़ी पहनने पर भी रोक लगा दी थी. तब इसके विरोध में पाकिस्तान की मशहूर गज़ल गायिका इकबाल बानों ने साड़ी पहनकर लाहौर के एक स्टेडियम में इसी नज़्म को गाया था. उस समय स्टेडियम में 50 हज़ार से ज्यादा लोग मौजूद थे. तब कार्यक्रम को बाधित करने के लिए वहां की बिजली काट दी गई थी लेकिन इकबाल बानों नहीं रूकी और ये नज़्म तानाशाही के खिलाफ आंदोलन का तराना बन गई. इकबाल बानो ने ये नज़्म फैज की मृत्यु के 2 साल बाद गाई थी लेकिन ये पाकिस्तान की तानाशाही सरकार के खिलाफ आंदोलन की आवाज बन गई.


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