Vicky Kaushal: फिल्म बनाना भी फौजी काम है. टीम वर्क. बहुत से लोग मिलकर एक लड़ाई लड़ते और जीतते हैं. एक भी मोर्चा कमजोर पड़ जाए, तो फिल्म कमजोर पड़ जाती है. लंबे समय से चर्चा में बनी हुई बायोपिक सैम बहादुर में विक्की कौशल अकेले किला लड़ाते नजर आते हैं. जबकि राइटरों से लेकर उनके को-स्टार और डायरेक्टर कहीं पीछे रह जाते हैं. हिंदुस्तान के इतिहास में सैम मानिकशॉ किसी किंवदंती के जैसा स्थान रखते हैं. लेकिन उनकी जिंदगी और बहादुरी की कहानी कहने की कोशिश करती यह फिल्म तमाम जगहों पर लड़खड़ाती है. कमजोर पड़ती है. सिर्फ इस बात में श्रद्धा रखते हुए कि आप एक बांके-वीर-जवान की कहानी देख रहे हैं, ढाई घंटे की फिल्म को देख सकते हैं. लेकिन जैसे ही आप सैम बहादुर को सिनेमा की कसौटी पर कसने लगते हैं, तो मेघना गुलजार (Meghna Gulzar) निराश करने लगती हैं.


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नया चश्मा पुराना चश्मा
एक समस्या और यहां नजर आती है. बायोपिक को ईमानदार होना चाहिए और जिस दौर की कहानी है, उसी चश्मे से देखा जाना चाहिए. मगर हाल के वर्षों में बनी सैनिक कार्रवाइयों और ऐतिहासिक-राजनीतिक बायोपिक फिल्मों को वर्तमान के सांचे में ढालकर गढ़ा गया है. यही बात सैम बहादुर में नजर आती है. ऐसे में फिल्म सच्ची होने के बजाय किसी को उठाने और किसी को गिराने के काम में लग जाती है. वह ऐतिहास होने की जगह व्यक्तिपरक होने लगती है. सैम बहादुर में सैम मानिकशॉ अकेले दिग्गज किरदार नहीं हैं, बल्कि आजादी की ऐतिहासिक तारीख की सीमा रेखा के दोनों तरफ की खड़ी हस्तियां यहां हैं. नेहरू, पटेल, इंदिरा से लेकर याह्या खान तक. लेकिन निर्देशक ने सैम मानिकशॉ को छोड़कर किसी को भी उसके मूल किरदारों से मिलाने-दिखाने में मेहनत की हो, यह पर्दे पर नहीं दिखता. यह बात निराश करती है.


जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी
सैम बहादुर का जीवन न केवल लंबा था, बल्कि बड़ा भी था. 94 बरस में से करीब छह दशक उन्होंने फौज में बिताए. ब्रिटिश सेना में भर्ती होने, इंडो-ब्रिटिश आर्मी द्वितीय विश्व युद्ध लड़ने और गोलियां खाने से लेकर फील्ड मार्शल बनने तक. फिल्म पूरे दौर को समेटने के साथ-साथ उनकी निजी जिंदगी और सैन्य अफसर के रूप में राजनीतिज्ञों का सामना करने की कहानी दिखाती है. जिसमें जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के किरदार तो मुख्य हैं ही, पाकिस्तानी सेना प्रमुख से तानाशाह बने याह्या खान के साथ उनके संबंध भी यहां उभरकर आए हैं. सैम के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा और उसकी परिणति को फिल्म में लाया गया है. यहां 1971 का पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश का उद्भव खास तौर पर दिखाए गए हैं. लेकिन यह बात निराश करती है कि मेकर्स ने युद्ध को फिल्माने के बजाय रीयल फुटेज बीच में शामिल किए हैं.



ऐतिहासिक छवियां
सैम बहादुर कई जगह डॉक्युमेंट्री का एहसास कराती है. तय है कि फिल्म सिनेमाई मनोरंजन के मानकों पर फिट नहीं बैठती. ऐसा नहीं है कि सैम के जीवन या कहानी में इनका अभाव है, लेकिन उनके करीब छह दशक के जीवन को ढाई घंटे में समेटने की कोशिश में चीजें यहां बहुत रफ्तार से चलती हैं और कई बार छलांग लगाती हैं. इसलिए कोई सही सिलसिला यहां बन नहीं पाता. इसके अतिरिक्त सैम मानिकशॉ के समकालीन जवाहर लाल नेहरू (नीरज काबी), इंदिरा गांधी (फातिमा सना शेख) और सरदार पटेल (गोविंद नामदेव) को देखते हुए आप निराश होते हैं. आपके मन में पहले से दर्ज इन हस्तियों की ऐतिहासिक छवियां एक्टरों से मेल नहीं खाती. जबकि याह्या खान के रूप में मोहम्मद जीशान अयूब को पहचानना मुश्किल होता है.


उम्र से कदमताल
फिल्म में अगर कोई एक्टर निखर कर आता है तो निश्चित रूप से वह विक्की कौशल हैं. उन्होंने कड़ी मेहनत की है. अपने गेट-अप और व्यक्तित्व में वह सैम मानिकशॉ का आभास दिलाते हैं. खास तौर पर युवा दिनों में. उनकी संवाद अदायगी भी अच्छी है. सैम की पत्नी के रूप में सिल्लू (सान्या मल्होत्रा) अच्छी लगी हैं, लेकिन यहां भी निर्देशक ने शुरू से अंत तक इस बात का खयाल नहीं रखा कि उन्हें कहानी में बढ़ते समय के अनुरूप बढ़ी उम्र का दिखाया जाए. सैम बहादुर की बड़ी समस्या इसकी राइटिंग है. इस काम को निर्देशक समेत तीन लोगों ने मिलकर किया है. कथानक के अनुरूप फिल्म में देशभक्ति, बहादुरी और राजनीति से जुड़े ऐसे संवाद नहीं हैं, जो छू लें या याद रह जाएं. कुल मिलाकर फिल्म को आप किसी हद तक अपने जनरल नॉलेज के लिए देख सकते हैं. या फिर विक्की कौशल के लिए.


निर्देशकः मेघना गुलजार
सितारेः विक्की कौशल, सान्या मल्होत्रा, नीरज काबी, मोहम्मद जीशान अयूब, फातिमा सना शेख, गोविंद नामदेव
रेटिंग **1/2