China-Tibet conflict: इतिहास में 23 मई का दिन तिब्बत पर चीन के औपचारिक कब्जे के रूप में दर्ज है. चीन की सरकार के इस फैसले (China invaded Tibet) का तिब्बत समेत पूरी दुनिया में विरोध हुआ था. इसके बावजूद चीन अपनी जिद पर अड़ा है. तिब्बत का इतिहास बेहद उथल-पुथल भरा रहा है. यूरोप और पश्चिमी देशों की तमाम रिपोर्ट्स के मुताबिक 'ड्रैगन' सैकड़ों सालों से तिब्बत पर नजर गड़ाए था. ऐसे में आज आपको तिब्बत पर चीन के कब्जे का वो किस्सा बताते हैं, जिससे बहुत लोग अनजान होंगे.


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ज्यादा पुरानी बात न करें तो फिलहाल चीन-तिब्बत संघर्ष अब आठवें दशक में है और इस संघर्ष के केंद्र में ये भी सच है कि अलग-अलग दोनों के बीच ऐतिहासिक संबंध रहे हैं. तिब्बतियों का कहना है कि उनका समाज सदैव से एक स्वतंत्र समाज था और वे कभी चीन का हिस्सा नहीं थे. वहीं चीनियों का कहना है कि तिब्बत हमेशा से चीन का हिस्सा रहा है.


चीन ने अपनी ताकत के मद में तिब्बत की संस्कृति, परंपरा और इतिहास को खत्म करने की कोशिश की. 1960 और 1970 के दशक में चीन ने तिब्बत के अधिकांश बौद्ध विहारों और मठों समेत अन्य केंद्रों को नष्ट कर दिया. अपनी विरासत और इतिहास को बचाने के लिए हजारों तिब्बतियों को अपनी जान देनी पड़ी.


1950 का वो दशक


बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों (Tibetans) के तिब्बत एक पूजनीय जगह है. वहीं चीन (China) कहता है कि तिब्बत पर सदियों से उसकी संप्रभुता रही है. तिब्बती लोग ऐसा नहीं मानते. वो चीन की थ्योरी से इत्तेफाक नहीं रखते. उनकी वफादारी आध्यात्मिक नेता 'दलाई लामा' (Dalai Lama) के प्रति है. वो उन्हें जीवित ईश्वर के तौर पर देखते हैं तो चीन उन्हें अलगाववादी और अपने लिए खतरा मानता है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक 1630 के आसपास तत्कालीन धर्मगुरू पांचवे दलाई लामा तिब्बत को एक करने में कामयाब रहे थे. 13वें दलाई लामा ने 1912 में तिब्बत को स्वतंत्र क्षेत्र घोषित किया था. करीब 40 साल बाद चीन ने नापाक हरकत की और फौज के दम पर उसे अपने नियंत्रण में कर लिया.


तिब्बत, चीन और भारत...


1950 में चीन ने यहां कब्जा करने की नीयत से पूरी फौज उतार दी थी. चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया तो उस दौरान चीनियों ने बाहरी दुनिया से उसका संपर्क बिल्कुल काट दिया. 1951 में चीन ने चीटिंग की. उस दौरान चीनीयों ने तिब्बत के कुछ इलाकों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया और बाकी को चीनी प्रांतों में मिला दिया. चीनी अफसरों ने तिब्बत के एक डेलिगेशन से एक संधि पर हस्ताक्षर करा लिए जिसके अधीन तिब्बत की प्रभुसत्ता चीन को सौंप दी गई. तब चीन में माओत्से तुंग का शासन था.


1959 में चीन से आजादी को लेकर हुए एक संघर्ष के बाद 14वें दलाई लामा को तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी. दलाई लामा के साथ बड़ी तादाद में तिब्बती मूल के लोग भारत आए थे. 


अनसुनी कहानी


रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन और तिब्बत के प्रतिनिधियों ने 1951 में 17-सूत्री समझौते (China Tibet Agreement) पर हस्ताक्षर किए थे. जिसके तहत चीन ने तिब्बत की पारंपरिक सरकार और धर्म को यथावत रखने का वचन दिया. ये सब तब हुआ जब चीन ने 1950 के आस-पास तिब्बत पर हमला किया, उसकी सेना को हराया और तिब्बती क्षेत्रों के बड़े हिस्से पर नियंत्रण स्थापित किया. 


हालांकि तिब्बतियों ने बीजिंग पर समझौते का उल्लंघन करने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि उन्हें पहले से ही चीन की नीयत पर शक था. इसी वजह से वो उस 17 सूत्रीय समझौते को लेकर सहज और आश्वस्त नहीं थे. इन्ही शर्तों और समझौतों के उल्लंघनों के खिलाफ असंतोष की परिणति 1959 के तिब्बती विद्रोह में हुई, जिसे चीनियों ने कुचल दिया. ये वही वक्त था जब तिब्बती धर्मगुरू (14वें दलाई लामा) भारत में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था.


यहां हम बताते हैं कि 17-सूत्रीय समझौता क्या था? 


इस समझौते को Agreement on Measures for the Peaceful Liberation of Tibet नाम दिया गया था. इस मसौदे पर दस्तखत तब हुए थे. जब चीनियों ने तिब्बत पर हमला कर उसके पूर्वी और उत्तरी हिस्सों पर कब्जा करने के बाद और आगे बढ़ने की धमकी दी. जाहिर है कि ऐसी हालत में तिब्बत के लोगों को बातचीत की मेज पर आने के लिए मजबूर होना पड़ा होगा.


चीनियों का दावा था कि एग्रीमेंट सौहार्दपूर्ण था. लेकिन निर्वासित तिब्बती सरकार ने दावा किया कि उस समझौते को दबाव डालकर हस्ताक्षर कराया गया था. 


भारत का रुख


हालांकि भारत ने सीधे तौर पर तिब्बती दावे का समर्थन नहीं किया. लेकिन जब जरूरत पड़ी तो ये कहा कि उस समझौते के दौरान तिब्बत के पूर्वी और उत्तरी हिस्सों पर चीनी कब्जे के कारण तिब्बती लोग दबाव में रहे होंगे. 


भारतीय विदेश मंत्रालय ने 1950 में अपने एक नोट में बीजिंग को बताया, 'अब जब चीनी सरकार द्वारा तिब्बत पर आक्रमण का आदेश दिया गया है, तो बिना किसी दबाव के शांतिपूर्ण वार्ता ही कोई समाधान निकाल सकेगी. वैश्विक घटनाओं के वर्तमान संदर्भ में, तिब्बत पर चीनी सैनिकों का हमला निंदनीय है. भारत सरकार के मुताबित ऐसे घटनाक्रम चीन या फिर क्षेत्रीय शांति के हित में नहीं है.'


चीनियों ने कैसे किया संधि का उल्लंघन?

तिब्बतियों के अनुसार, उनके आश्वासनों के बावजूद, चीनियों ने तिब्बती प्रशासन को लगातार कमजोर दिया. कम्युनिस्ट नेताओं ने चीनी नीतियां पेश कीं और क्षेत्र में सेना बढ़ा दी. भूमि सुधारों के नियमों ने इस क्षेत्र में उथल-पुथल बढ़ा दी थी. इससे तिब्बतियों में चीनी राज के खिलाफ असंतोष बढ़ा. 


केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (CTA), जो हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से निर्वासित तिब्बती सरकार के रूप में काम करता है. उसके मुताबिक चीनियों ने उस एग्रीमेंट की हर शर्त का उल्लंघन किया था. 


दरअसल उस 17 सूत्रीय समझौते में लिखा था कि तिब्बती लोगों को चीनी नेतृत्व के बावजूद अपनी राष्ट्रीय क्षेत्रीय स्वायत्तता का प्रयोग करने का अधिकार रहेगा. उसमें ये भी लिखा था कि 'केंद्रीय अधिकारी तिब्बत की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव नहीं करेंगे. वो दलाई लामा की स्थापित स्थिति, कार्यों और शक्तियों में भी बदलाव नहीं करेंगे. विभिन्न रैंकों के अधिकारी हमेशा की तरह कार्यालय संभालेंगे. तिब्बती लोगों की धार्मिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों और आदतों का सम्मान किया जाएगा. लामा मठों की रक्षा की जाएगी. तिब्बत की स्थानीय सरकार ही हितों के हिसाब से सुधार के काम करेगी. लोगों द्वारा उठाई गई सुधारों की मांगों को तिब्बत के प्रमुख कर्मियों के साथ परामर्श के माध्यम से हल किया जाएगा.'


CTA ने ये आरोप भी लगाया कि चीन ने तिब्बत में उनके लोगों को हटाकर अपने लोग शामिल किए. कुछ समय बाद उन्होंने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी चीनी फौज के समर्थन से 'तिब्बती सरकार' की सारी शक्तियां छीन ली थीं.


2011 के अपने एक जर्नल में CTA ने लिखा था कि तिब्बती लोगों की इच्छाओं के खिलाफ खाम और अमदो (तिब्बत के क्षेत्रों) में कम्युनिस्ट सुधार लागू किए गए. तिब्बती जीवन शैली को जबरन बदला गया. सैकड़ों तिब्बती धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थानों को नष्ट कर दिया गया था. इस तरह चीन ने तिब्बत को अपने नियंत्रण में लेने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल किया.