दिल्ली में अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ लाए गए केंद्र के अध्यादेश पर दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने आर-पार की लड़ाई का मन बना लिया है. मुख्यमंत्री केजरीवाल इसे संविधान और न्यायपालिका के खिलाफ बता रहे हैं. उन्होंने इस अध्यादेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है, जिस पर 11 जुलाई 2023 को सुनवाई होनी है.


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इस अध्यादेश को लेकर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने संविधान और कानून के जानकारों की राय को अपने इंस्टाग्राम पेज पर शेयर किया है जिसमें एक्सपर्ट्स ने इस अध्यादेश की आलोचना की है. कई जानकारों ने इसे उकसावे की राजनीति बताया है. इसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज की राय भी शामिल है.


अध्यादेश पर क्या बोले एक्सपर्ट?
- सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर ने कहा, 'यह अध्यादेश दिल्ली के लोगों, उसके निर्वाचित प्रतिनिधियों और संविधान के साथ एक संवैधानिक धोखाधड़ी जैसा है.'
- पूर्व केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री अश्विनी कुमार ने भी इस अध्यादेश की आलोचना की है. उन्होंने कहा, 'दिल्ली के लिए केंद्र द्वारा लाया गया ये अध्यादेश राजनीति में विरोध के स्वर को और तेज करेगा. ये अच्छा संकेत नहीं है.'
- वरिष्ठ वकील गौतम भाटिया ने कहा, 'यह अध्यादेश लोकतंत्र और जिम्मेदार शासन के सिद्धांतों को कमजोर करता है, जो कि भारत की संवैधानिक व्यवस्था के स्तंभ हैं.'
- सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील गोपाल शंकरनारायणन ने कहा, 'अब समय आ गया है कि कानूनी प्रक्रिया की इस तरह की अवहेलना को कड़ा झटका दिया जाए. तीरंदाज को निशाना साधकर अपना तीर चला देना चाहिए.'
- पूर्व कैबिनेट सचिव केएम चन्द्रशेखर ने कहा, 'निष्कर्ष यह है कि संविधान में संशोधन की प्रक्रिया से गुजरे बिना और सूची दो के तहत सभी शक्तियों को छीना जा सकता है.'
- लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान विशेषज्ञ, पी डी टी आचार्य ने कहा, 'किसी भी प्राधिकारी को यह निर्देश देने का अधिकार नहीं है कि अदालत के आदेश का कोई प्रभाव नहीं होगा और उसका पालन नहीं किया जाएगा. चूंकि अध्यादेश फैसले को रद्द करने के लिए कोई नया आधार नहीं बताता है, इसलिए यह कानूनी रूप से अस्थिर है. इस प्रकार यह अध्यादेश वर्तमान स्थिति में गंभीर कानूनी कमजोरियों से ग्रस्त है.'



कहां से शुरू हुई कहानी?
दिल्ली सरकार बनाम केंद्र के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई 2023 को एक फैसला सुनाया, जिसमें ये साफ कर दिया गया था कि अब दिल्ली में अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार उप-राज्यपाल के पास नहीं बल्किक दिल्ली की सरकार के पास होगा. इसके बाद जैसे ही सुप्रीम कोर्ट बंद हुआ केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया.


सुप्रीम कोर्ट के फैसले में क्या था?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि दिल्ली में अधिकरियों के ट्रांसफर और उनकी पोस्टिंग से जुड़े फैसले करने का अधिकार दिल्ली सरकार के पास होगा. सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने कहा था कि सभी प्रशासनिक मामलों में फैसले लेने का अधिकार उप राज्यपाल के पास नहीं हो सकता. न ही उपराज्यपाल को सरकार के हर काम में दखल देने का अधिकार है.


क्या है अध्यादेश का मतलब?
केंद्र सरकार द्वारा लाए गए इस अध्यादेश में साफ कर दिया गया कि दिल्ली में अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग का अधिकार उप-राज्यपाल को वापस दे दिया गया है. साथ ही केंद्र सरकार के अध्यादेश के मुताबिक, दिल्ली में 'राष्ट्रीय राजधानी लोक सेवा प्राधिकरण' का गठन किया जाएगा, जिनके पास अधिकारियों के तबादले और पोस्टिंग का अधिकार होगा.


प्राधिकरण में कौन लेगा फैसला?
अध्यादेश के मुताबिक, बनाए जाने वाले प्राधिकरण में तीन सदस्य होंगे. इसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री होंगे, वो इसके अध्यक्ष भी रहेंगे. उनके अलावा इसमें दिल्ली के मुख्य सचिव और दिल्ली के गृह प्रधान सचिव को भी शामिल किया गया है. 


हालांकि, ट्रांसफर-पोस्टिंग पर आखिरी फैसला दिल्ली के उप-राज्यपाल के पास ही होगा. अगर प्राधिकरण का फैसला उप-राज्यपाल को सही नहीं लगेगा तो वो उसे रिजेक्ट कर सकते हैं. यानी आखिरी फैसला लेने का पूरा अधिकार दिल्ली सरकार के पास नहीं बल्कि एलजी के पास होगा.


इन मुद्दों पर केजरीवाल का रहा है केंद्र से टकराव?
साल 2015 से ही केजरीवाल सरकार ने केंद्र सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है. इस दौरान तीन उपराज्यपाल बदल गए लेकिन दिल्ली सरकार का उनसे तकरार अभी भी खत्म नहीं हुआ. पहले नजीब जंग, फिर अनिल बैजल और अब विनय कुमार सक्सेना, तीनों एलजी के साथ केजरीवाल सरकार की किसी न किसी मुद्दे पर तकरार रही.


पहले दिल्ली को पूर्ण राज्य बानने की मांग पर टकराव रहा. इसके बाद केजरीवाल सरकार अधिकारों को लेकर एलजी से भिड़े और फिर ये मामला हाई कोर्ट पहुंच गया. सचिव को नियुक्त करने से जुड़े मामले में वो नजीब जंग से भिड़ गए. हालांकि, 2016 में हाई कोर्ट ने साफ कर दिया कि ये अधिकार उपराज्यपाल के पास ही रहेगा. हालांकि, फिर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया और सरकार व एलजी को साथ मिलकर काम करने को कहा.


इसके बाद केजरीवाल की परेशानी उस वक्त और बढ़ गई जब केंद्र सरकार ने 2018 में GNCT Delhi Act 1991 में संशोधन कर संसद से इसे पास करवा लिया. इसमें दिल्ली सरकार और एलजी के अधिकारों को स्पष्ट किया गया था. इसमें एलजी के पास ज्यादा अधिकार देखे गए. यही नहीं, केंद्र ने एलजी को और मजबूत करने के लिए 2021 में एक नया कानून बनाया.  इसके खिलाफ केजरीवाल सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची और इस मामले में सुनवाई लंबित है.


केजरीवाल के साथ कौन-कौन?
केंद्र सरकार द्वारा लाए गए इस अध्यादेश के खिलाफ मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल खुले तौर पर विपक्षी पार्टियों से समर्थन करने को कह चुके हैं. उन्हें अंदेशा है कि सरकार मानसून सत्र में इस अध्यादेश को पेश कर सकती है और इस पर कानून बना सकती है. ऐसे में अरविंद केजरीवाल विपक्षी पार्टियों से समर्थन प्राप्त कर संसद में इसके खिलाफ वोटिंग चाहते हैं. 


हालांकि, केजरीवाल को पूरे विपक्ष का साथ नहीं मिल पा रहा. कांग्रेस ने इस मुद्दे पर साफ तौर पर कुछ भी कहने से इनकार कर दिया है. वहीं, पटना में हुई विपक्षी दलों की बैठक में अन्य दलों ने भी केंद्र के इस कदम की आलोचना तो की लेकिन खुलकर इसके खिलाफ केजरीवाल के समर्थन में आते नहीं दिखे.


पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार, पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे समेत कई नेताओं ने अरविंद केजरीवाल को अध्यादेश के खिलाफ उनका समर्थन देने की बात कही है.