नई दिल्ली: राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के नेता जितेंद्रनाथ ने जी डिजिटल को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि अचानक पूरे देश के दलित, ओबीसी समाज का संपूर्ण वंचित हिस्सा सड़क पर निकल गया है. मीडिया सहित अन्य प्रचार मशीनरी इसे 2019 की पूर्व पीठिका बताने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. लोगों की चिंता, निराशा के आधार बनाकर 2019 की भविष्यवाणी करने की होड़ मची है. प्रथम दृष्टया इस सच्चाई से इनकार करना सही भी नहीं होगा कि सामाजिक उथल-पुथल का असर राजनैतिक ढांचे पर नहीं होगा. 


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उन्होंने कहा कि संसदीय लोकतंत्र में जहां हर व्यक्ति को व्यस्क मताधिकार का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है, वहां यह गुस्सा चुनाव नतीजों पर प्रभाव नहीं डालेगा ऐसा तो होगा नहीं. बावजूद इसके इसे सिर्फ चुनाव तक सीमित करना सही नहीं होगा. क्या इस बार का यह गुस्सा सत्ता बदलने और इस या उस पार्टी, गठबंधन को सत्ता से हटाने और बैठाने का माध्यम मात्र होगा या कोई बड़ा बुनियादी परिवर्तन की दिशा निर्धारित करने वाली परिस्थितियां निर्मित करने में कामयाब होंगी.


उन्होंने इसकी पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए कहा कि 1990 के बाद एक समझ विकसित हुई थी कि एससी-एसटी के बाद पिछड़ा वर्ग को भी आरक्षण मिल गया तो अब सभी वंचित तबका विकास की मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे. जैसा कि दक्षिण के राज्यों में देखा गया था. पिछड़ा और दलित इस आत्मुग्धता में रहे कि अब समस्याएं स्वतः समाप्त हो जाएंगी और सोचना स्वाभाविक भी था, क्योंकि न सिर्फ आरक्षण प्राप्त हुआ, बल्कि 'सामाजिक न्याय का नारा' लगातार ही सत्ता में जाने की शर्त हो गई थी. लेकिन सदियों से जो तबका उदासीन था वह इसे चुपचाप स्वीकार करे यह सोचना सरलीकृत सैद्धांतिक गणित की तरह तो हो सकता है, व्यवहारिक बिल्कुल नहीं होना था और न हुआ. होता भी क्यों जब विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका पर जिनका कब्जा था वे इसे क्यों करने देते. सभी तरह की चालें चलीं गईं.


वंचित तबका जातियों की श्रेष्ठता के विचार से मुक्त नहीं हुआ
जीतेन्द्र नाथ ने  बातचीत के क्रम में आगे कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र को निजी हाथों में दे दिया गया जहां आरक्षण की व्यवस्था नहीं है. विधायिका में ओबीसी को आरक्षण नहीं है. एससी-एसटी की आरक्षित सीटें सिर्फ उनके वोट से चुनकर आने की डॉ अंबेडकर की समझ खारिज कर दी गई थी. सुरक्षित क्षेत्र से आने वाले प्रतिनिधियों को भी मालूम है कि फिर चुनकर आने की गारंटी तभी होगी जब प्रभुत्व वर्ग की सहमति होगी. इसलिए निर्णय स्वतंत्रता प्रभावित होती रही. वंचित तबका भी जातियों की श्रेष्ठता के विचार से मुक्त नहीं हुए और कभी जातियों के घेरे को तोड़ा तो धार्मिक चौधराहट की घेराबंदी में कैद हो गए. 


10 अप्रैल का भारत बंद आरक्षण विरोधियों की सोची-समझी प्रतिक्रिया थी
उन्होंने कहा कि 10 अप्रैल का भारत बंद आरक्षण विरोधियों द्वारा सोची-समझी प्रतिक्रिया थी. इसी दिन रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मानव संसाधन राज्य मंत्री माननीय उपेंद्र कुशवाहा के साथ आरक्षण विरोधियों द्वारा किए गए अपमानजनक व्यवहार से बिहार और देश भर में गुस्सा है. कुश्वाहा ने न्यायपालिका में आरक्षण की आवश्‍यकता का तर्कसम्मत अभियान पहले ही घोषित कर दिया है. संसद में भी इस प्रश्न को रखते हुए उन्‍होंने निजी क्षेत्र में भी आरक्षण मांगा है. बिहार में सामाजिक न्याय की धारा फिर एक नई चमक के साथ आकार ले रही है. देश भर के वंचित वर्ग को लगता है कि इस बार नए सिरे से एक स्पष्ट रोडमैप के साथ सामाजिक न्याय की मंजिल तय की जाएगी.


दर्जनों घटनाओं ने तैयार की गुस्से की रूपरेखा 
उन्होंने कहा कि हालिया दिनों में डीओपीटी का निर्देश, यूनिवर्सिटी को इकाई न मानकर विषयवार विभाग को इकाई बनाना, रोहित वेमुला की घटना, भीमा कोरेगांव, ऊना, सहारनपुर की घटना, पदोन्नित में आरक्षण की समाप्ति, बिहार में दलितों और पिछड़ों के नरसंहार के तमाम दोषियों का ससम्मान दोषमुक्त कर देने के न्यायिक फरमान जैसे दर्जनों अलग-अलग घटनाओं की वजह से दलित पिछड़े, वंचित ठगे गए तो ये निराश भी हो रहे थे. दशकों पुराने एक न्यायिक विवाद को निबटाने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से एससी, एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम में छेड़छाड़कर उसे हल्का करने की आशंका ने उसे अचानक सड़क पर ला दिया. पिछड़ों का गुस्सा भी साथ हो लिया जो एक विकराल रूप में सामने आया है.


आरक्षण के बावजूद कई चुनौतियां
जितेंद्रनाथ ने वंचित तबके की समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आरक्षण सिर्फ तरक्की पाना और नौकरी पाने का मामला भर नहीं है. आरक्षण के बावजूद वंचित तबका को नौकरी पाने के पहले बहुत सारी सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. उसे तमाम चुनौतियों और सामाजिक बंधनों के बावजूद अपने भीतर सपना जगाए रखना पड़ता है. आप निचले स्तर पर वंचितों के आस पास की स्थितियों की कल्पना मात्र से सिहर जाते हैं. ऐसे में सपना जगाए रखना कितनी बड़ी चुनौती है, उसे समझना होगा. मेरा मानना है आरक्षण नौकरी और तरक्की से आगे की चीज है, यह सम्मान हासिल करने का मामला है. समाज में बराबरी का मामला है और जब तक वंचित तबका इस सम्मान को हासिल करने के लिए मजबूती से गोलबंद नहीं होगा तब तक उसे सम्मान मिलना असंभव है. दलितों और पिछड़ों को रोज लादी जा रही चुनौतियों के बरक्स अपनी गोलबंदी दिखानी होगी.


मालूम हो कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व राष्‍ट्रीय परिषद सदस्य जीतेन्द्र नाथ पिछले साल अगस्त में रालोसपा में शामिल हुए थे. पिछले कुछ समय से बिहार के राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि रालोसपा प्रमुख और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा आरजेडी से हाथ मिला सकते हैं. पिछले दिनों एम्स में आरजेडी प्रमुख लालू यादव से उनकी मुलाकात के बाद इस चर्चा ने जोर पकड़ा था. हालांकि उपेंद्र कुशवाहा ऐसी किसी संभावना को खारिज कर चुके हैं.