बगहाः Sikki Art in Bagaha: बिहार की प्राचीन लोक कलाओं में से एक सिक्की कला आज लुप्त होने के कगार पर है ऐसे में पश्चिम चम्पारण जिला के बगहा की आदिवासी महिलाओं के प्रयास से यह कला अब अपनी पुरानी रौनक में लौट रही है. सिक्की कला के जरिए आदिवासी इलाके की महिलाएं ना सिर्फ अपने सांस्कृतिक विरासत को बचा रही हैं. बल्कि इस हुनर की वजह से यहां की महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी बन रही हैं.


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दरअसल, पश्चिम चम्पारण की बाढ़ प्रभावित इलाके की नदियों के किनारे उगने वाले एक विशेष प्रकार की घास/रेड़ का उपयोग कर महिलाएं रंग बिरंगी मौनी, डालिया, पंखा, पौती, पेटारी, सिकौती, सिंहोरा जैसी चीजें बनाती हैं. जिसकी डिमांड देश के साथ-साथ विदेशों तक है.


बताया जा रहा है कि सिक्की कला का इतिहास काफी पुराना है. वर्षों पहले से ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं इस कला में निपुण रही हैं. पुराणों में भी इस बात का जिक्र है कि राजा जनक ने अपनी पुत्री वैदेही को विदाई के समय सिक्की कला की सिंहोरा, डलिया और दौरी बनाकर उपहार में दिया था. आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बेटी की विदाई के दौरान सिक्की से बने उत्पादों को देने की परंपरा चली आ रही हैं. इस विलुप्त होती सिक्की कला के जरिए सैकड़ों आदिवासी महिलाएं अपना तकदीर लिख रही है.


बिहार के इकलौते वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के भ्रमण पर आने वाले पर्यटकों को सिक्की कला के उत्पाद खूब भाते हैं. ऐसे में अगर सरकार इस सिक्की कला को बढ़ावा दें तो ग्रामीण क्षेत्रों में लघु एवं कुटीर उद्योग को बड़े पैमाने पर स्थापित कर रोजगार का सृजन किया जा सकता है.


बता दें कि थरूहट आदिवासी बहुल्य हरनाटांड समेत लक्ष्मीपुर ढ़ोल बजवा और देवरिया तरुअनवा व सेमरा बाजार आज इस सिक्की कला के हब बन गए हैं. जहां आदिवासी महिलाएं आत्मनिर्भरता की गाथा लिख रहीं हैं. जिससे उन्हें रोजगार का सृजन भी हो रहा है.
इनपुट-  इमरान अजीज, बगहा 


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