'चलनी के चालल दुलहा सूप के फटकारल हे, 
दिअका के लागल बर दुआरे बाजा बाजल हे.
आंवा के पाकल दुलहा झांवा के झारल हे
कलछुल के दागल, बकलोलपुर के भागल हे.'


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लगन आते ही बिहार के गांवों में लाउडस्पीकर पर इस लोकगीत को सुनना आम बात है. इस लोकगीत के बोल को क्या महिला और क्या पुरुष सबों ने दिल से पसंद किया है. बिहार के अधिकांश लोगों को भले ही यह न पता हो कि इस गीत को किसने लिखा और वह शख्स कौन था. लेकिन, इसके बावजूद इस गीत के साथ यहां के लोग एक बेहतरीन जुड़ाव महसूस करते हैं. चलनी के चालल दुलहा....गीत के बोल कान के पास पहुंचते ही आगे की लाइन स्वत: लोगों के मुंह पर आ जाती है और वह आगे बुदबुदाने लगते हैं.


शायद किसी ने सोचा होगा कि इस लाइन को लिखने वाला शख्स कभी भोजपुरी के शेक्सपियर के तौर पर जाना जाएगा. जी हां, मैं बात कर रहा हूं भिखारी ठाकुर की जो बिहार के और भोजपुरी के महानायक के तौर पर जाने जाते हैं. आज 10 जुलाई को भिखारी ठाकुर का पुण्यतिथि है. भिखारी वह आभूषण हैं जिसे आगे की कई भोजपुरी की पीढ़ी तराशती रहेगी और उनकी चमक तेज ही होती जाएगी. भिखारी से पहले और भीखारी के बाद भोजपुरी साहित्य में वह अकेले हैं. आइए जानते हैं कि भोजपुरी को अपनी लेखनी बनाने वाले भिखारी कौन थे उन्हें किसने और किन वजहों से शेक्सपियर की उपाधि दी है. 


कौन थे भोजपुरी के भिखारी ठाकुर?
भोजपुरी के शेक्सपियर के तौर पर अपनी पहचान बनाने वाले भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 को बिहार राज्य के छपरा जिले के छोटे से गांव कुतुबपुर के एक सामान्य नाई परिवार में हुआ था. आर्थिक आभाव में अपना बचपन गुजारने के बाद जब भिखारी बड़े हुए तो भी उन्हें समाज व आर्थिक कमजोर हालात की वजह से कई सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा. पैसा कमाने के लिए वह गांव छोड़कर पश्चिम बंगाल गए लेकिन वहां भी उन्हें मन नहीं लगा. इस दौरान उन्हें अहसास हुआ कि वह एक कलाकार हैं और उन्हें कला से प्रेम है. इसके बाद एक दिन रामलीला देखने के बाद वह लोकगीत, दोहा अपने भोजपुरी भाषा में लिखने लगे. 


भिखारी को किसने शेक्सपियर की उपाधि दी
भिखारी जब खड़गपुर से लौट कर अपने गांव आए तो उस समय पलायन की समस्या काफी अधिक होने की वजह से वह अपने आस-पड़ोस में इन समस्याओं से दो-चार हो रहे थे. इसके बाद उन्होंने अपने नाटक, लोकगीत व दोहा के माध्यम से पलायन की समस्या व महिला की समस्या पर लोगों को ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया. देहाती भाषा में जिस तरह से उन्होंने इन समस्याओं पर चोट किया वह आज भी और आने वाले समय में भी साहित्य में एक उदाहरण के तौर पर सामने आते रहेगा. अपनी बात को सटीक तरह से कहने के इसी खास गुण की वजह से राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें 'भोजपुरी का 'शेक्सपियर' की उपाधि दे दी थी.


'रचना में भिखारी महिलाओं के प्रति समाज को दोमूहे पन को उजागर करते हैं'
भिखारी की रचना में महिलाओं के संघर्ष को हुबहू उसी तरह दिखाने का प्रयास किया गया है, जो वास्तव में है. महिलाओं की पीड़ा, पितृसत्ता सोच पर प्रहार निरा देसी और देहाती भाषा में करने की जो कला भिखारी में है वह भोजपुरी के शायद किसी दूसरे साहित्यकार में हो. यही नहीं बिहार में लौंडा नाच के माध्यम से अपने गीत को लोगों के बीच लोकप्रिय कर अपनी बात को समाज के बीच पहुंचाना भिखारी ही कर सकते हैं. भिखारी के कई गीत तो बिहार की महिलाओं के होंठ पर है. 


'सिर्फ लोकगीत नहीं नाटक कला में भी भिखारी का कोई जोर नहीं'
भिखारी ठाकुर रंगमंच के भी हिस्सा थे. यही वजह है कि देश और विदेश में भिखारी ठाकुर के नाटकों का मंचन किया गया है. यही नहीं भिखारी पर तो फिल्म "नाच भिखारी नाच" का तकरीबन 18 देशों में स्क्रीनिंग हो चुका है. हाल ही में भिखारी ठाकुर के शिष्य, रामचंद्र मांझी, को राष्ट्रपति द्वारा संगीत नाटक अकादमी सम्मान दिया गया है. रामचंद्र मांझी भी भिखारी ठाकुर रंगमंच का हिस्सा है. अपने एक नाटक गबरघिचोर में भिखारी ने गिरमिटिया, चटकलिहा मजदूरों, किसानों के पलायन की संस्कृति पर प्रहार किया है. दिखाया है कि किस तरह से पति के घर से बाहर रहने पर पत्नी विरह में जिंदगी जी रही होती है और अंत में अवैध संबंध से एक बच्चे का जन्म होता है. इसी तरह महिला की विरह को उनकी इस पंक्ति में भी महसूस किया जा सकता है- 


'हाय हाय राजा कैसे कटिये सारी रतिया,
जबले ग‍इले राजा सुधियो ना लिहले, लिखिया ना भेजे पतिया. हाय हाय
हाय दिनवां बितेला सैयां बटिया जोहत तोर, तारा गिनत रतियां. हाय हाय