समस्तीपुर : बनारस की भस्म वाली होली, बरसाने की लट्ठमार होली तो सभी जानते हैं लेकिन क्या आपने कभी बिहार की छतरी होली के बारे में सुना है. जैसे बिहार के समस्तीपुर के भिरहा गांव की होली की तुलना ब्रज की होली से की जाती है. वैसे ही समस्तीपुर के पटोरी अनुमंडल की होली भी खासी चर्चा का विषय है. 90 साल से इस होली का आयोजन किया जा रहा है. आज भी यह परंपरा जारी है. बांस के बने छाते के साथ खेली जानेवाली यह होली सच में अनोखी है. आइए हम आपको इसके बारे में बताते हैं. 
 
समस्तीपुर के पटोरी अनुमंडल क्षेत्र के धमौन में यह होली 9 दशकों से पारंपरिक रूप से मनाई जाती है. बता दें कि यह गांव  पांच पंचायतों वाला गांव है. इस इलाके में लोग छतरी लेकर होली खेलते हैं. मतलब घूम-घूमकर होली खेलनेवाले लोगों के पास छतरी होती है, वह भी बांस की बनी छतरी. यही कारण है कि इस होली को छतरी वाली होली कहा जाता है. इस इलाके के लोग एक से बढ़कर एक छतरी को तैयार करते हैं और उसे साथ लेकर रंगों से सराबोर होने होली के दिन निकल पड़ते हैं. इस होली को देखने के लिए दूर-दूर से लोग इकट्ठा होते हैं.


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यहां के लोग करीब पंद्रह दिन पहले ही एक होली की तैयारी में जुट जाते हैं. यह गांव धमौन इतना विशाल है कि इसके 5 पंचायत हैं. ऐसे में इतनी बड़ी आबादी वाले इस गांव में होली की उमंग के कहने ही क्या? लोग होली से पहले ही इस बांस की छतरी को बनाने की तैयारी शुरू कर देते हैं. बांस के इन बड़े-बड़े छातों को खूब सजाया जाता है. इस विशाल गांव में 30 से 35 ऐसी छतरी तैयार की जाती है. सारी छतरियां एक से एक बेहतरीन होती हैं. जिसे दखने लोग आते हैं. 


इन छतरियों के साथ लोग अपने ग्रामीण कुल देवता स्वामी निरंजन मंदिर के प्रांगण में पहुंचते हैं कुलदेवता को अबीर-गुलाल अर्पित करते हैं. फिर फाग गीतों के साथ लोगों से गले मिलते हैं और फिर होली का त्योहार शुरू होता है. कुलदेवता के मंदिर से शुरू यह छतरी होली की यात्रा मध्य रात्रि में नाचते-गाते खुशी मनाते और रंग-गुलाल उड़ाते महादेव मंदिर तक पहुंचती है. फिर वहां से वापसी के क्रम में सभी चैती गाते लौटते हैं. क्योंकि तब तक चैत्र माह की शुरुआत हो जाती है. इस होली में लगभग 70-75 हजा लोग शामिल होते हैं. होली की शुरुआत के बारे में तो कोई खास प्रमाण नहीं है लेकिन यह होली अद्भुत है. यह होली इस इलाके की पहचान बन गई है. इस परंपरा को यहां के लोगों ने आज भी जिंदा रखा.


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