पटना : बिहार का मिथिलांचल वैसे तो सांस्कृतिक, साहित्यिक और आध्यात्मिक रूप से एक समृद्ध प्रदेश है. यहां से पूरी दुनिया में जाकर बसे लोग आज भी अपनी परंपराओं का निर्वाह उतनी ही शिद्दत से करते हैं. बता दें कि मिथिलांचल के लिए सावन का पावन महीना खास होता है. यहां की नव विवाहित शादी के साल पड़नेवाले सावन के महीने में कठिन व्रत धारण करती हैं और 13-14 दिनों तक अपने पति की लंबी आयु के लिए भगवान शिव की उपासना करती हैं. इस साल 18 जुलाई से शुरू होकर यह लोकपर्व 31 जुलाई को समाप्त होगा. 


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इस पर्व को कठिन तप के साथ करती हैं नव विवाहिता 
इस दौरान महिलाएं जमीन पर बिस्तर डालकर सोती हैं, बालों में कंघी नहीं करती, सूप और झाड़ू तक नहीं हाथों में लेती. घर से बाहर नहीं निकलती और तो और किसी नाले, नहर, नदी को पार तक नहीं करती. इन 13 से 14 दिनों के इस त्यौहार में मिथिला की नव विवाहिता औरतें भोजन में नमक तक का सेवन नहीं करती पूरे दिन फलाहार पर रहती हैं और रात में ससुराल से आए अनाज से बने बिना नमक के खाने को ग्रहण करती हैं. इन 13 से 14 दिनों तक ये औरतें भगवान सिव, माता पार्वती(गौरी) और नाग-नागिन की पूजा करती हैं. इस महीने  मिथिला की परंपरा जीवंत हो जाती है. 


पति की लंबी उम्र के लिए रखती हैं औरतें ये व्रत 
यह व्रत नव विवाहिता औरतें अपने मायके में मनाती हैं. व्रत में विशेष रूप से औरतें गौरी-शंकर की पूजा करती हैं और अपने पति की लंबी उम्र का वरदान मांगती हैं. सावन महीने के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि से यह व्रत शुरू होता है और सावन शुक्ल तृतीया तक चलता है. यह पर्व पूरे जीवन में विवाहिता महिलाएं केवल एक बार अपनी शादी के साल पड़नेवाले सावन के महीने में ही करती हैं. 


इस लोकपर्व में होती हैं महिला पुरोहित 
मधुश्रावणी इकलौता ऐसा लोकपर्व है जिसमें पंडित पुरुष नहीं बल्कि महिलाएं पुरोहित होती हैं. इसमें व्रती को यही महिला पंडित पूजा तो कराती हीं हैं साथ में इस पर्व से जुड़ी कथा भी रोज सुनाती हैं. इसके एवज में नव विवाहिता महिला पंडित को पूजा की समाप्ति पर अंतिम दिन दक्षिणा भी देती हैं. यह दक्षिणा लड़की के ससुराल से आती है. 


मिट्टी से बनी प्रतिमाओं का किया जाता है पूजन 
इस लोकपर्व के दौरान नव विवाहिताओं को शिव-पार्वती, मैना पंचमी, मंगला गौरी, पृथ्वी जन्म, पतिव्रता, महादेव कथा, गौरी तपस्या, शिव विवाह, गंगा कथा, बिहुला जैसी कथा सुनाई जाती है.  पूजा-अर्चना के लिए मिट्टी से निर्मित नाग-नागिन, हाथी, गौरी, शिव की प्रतिमा बनायी जाती है और फिर इनका पूजन किया जाता है. 


बासी फूलों से होती है मां गौरी की पूजा
यानी 14 दिनों तक दिन में बस एक समय भोजन करती हैं. इस लोकपर्व में बासी फूल से मां गौरी की पूजा होती है जिसे हर शाम लोढ़कर नव विवाहिता लाती हैं. 


मधुश्रावणी के समापन के दिन जलते अग्नि की टेमी (बाती) से दागी जाती है नव विवाहिता
मधुश्रावणी के अंतिम दिन नव विवाहिता को जलते अग्नि की टेमी (बाती) से दाग दिया जाता है. ऐसी मान्यता है कि जिस स्त्री में सौभाग्य प्रबल होता है उसके शरीर पर पड़ते ही इस टेमी की आग ठंड़ी पड़ जाती है और उसे कुछ नहीं होता. यह व्रत विवाह के बाद के प्रथम सावन में ब्राह्मण व कायस्थ परिवार में ही लोकप्रिय है.


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