Munawwar Rana: चाहनेवालों के दिलों में `मुनव्वर` रहेंगे ग़ज़ल के `राना`
बादशाहों को सिखाया है कलंदर होना आप आसान समझते हैं मुनव्वर होना ये भी पढ़ें- रोजगार मतलब नीतीश या तेजस्वी, राजद के बयान से सब समझ में आ जाएगा! उर्दू और हिन्दी की महफिलों में मजबूत कद काठी वाले मुनव्वर राना जब अपनी बुलंद आवाज़ में ये शेर पढ़ते थे, तो सुननेवाले जी भर-भरकर द
Munawwar Rana: 'बादशाहों को सिखाया है कलंदर होना, आप आसान समझते हैं मुनव्वर होना' उर्दू और हिन्दी की महफिलों में मजबूत कद काठी वाले मुनव्वर राना जब अपनी बुलंद आवाज़ में ये शेर पढ़ते थे, तो सुननेवाले जी भर-भरकर दाद देते थे. मुनव्वर राना को पसंद करने वाले बताते हैं कि वो इसी एक लाइन पर महफिल लूट लेते थे. इसके साथ ही वो एक बात और कहते थे...'कि आप दाद दें या ना दें, मुझे मालूम है कि मैं अच्छा शायर हूं'. हर महफिल में उनकी इस पंक्ति पर ज़ोरदार तालियां बजती.
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मुनव्वर के मुरीदों और उनके शुभचिंतकों ने कहा भी कि इस तरीके से महफिल की शुरुआत करने से लोग आपको मग़रूर मानने लगेंगे, लेकिन मुनव्वर राना का अपने सामयीन से बेहद खास रिश्ता था. मुनव्वर राना के ऐसा कहते ही तालियों की गड़गड़ाहट गूंजने लगती. अब उर्दू हिन्दी का ये बेमिसाल शायर अपनी आखिरी सफर पर रवाना हो गया है.
मशहूर शायर मुनव्वर राना का लखनऊ के एक अस्पताल में निधन हो गया, वे लंबे वक्त से बीमार चल रहे थे. जहां कार्डियक अरेस्ट के बाद उन्होंने आखिरी सांस ली. उर्दू शायरी की अदबी दुनिया और हिन्दुस्तान के लाखों चाहनेवालों के दिलों में मुनव्वर राना ने अपने शेरों के जरिए जो जगह बनाई है, वहां सदियां बीतने तक भी वो 'मुनव्वर' रहेंगे.
26 नवंबर 1952 को रायबरेली में जन्म लेने के बाद ज्यादातर वक्त वो पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में रहे. उनके पिता का नाम था अनवर राना और माता का नाम था आयशा खातून. मुनव्वर राना का परिवार विभाजन की त्रासदी का शिकार हुआ, उनके चाचा और दादी विभाजन के वक्त पाकिस्तान चले गए, लेकिन उनके पिता ने हिंदुस्तान में ही रहना पसंद किया. पिताजी ट्रक ड्राइवर थे और बाद में ट्रांसपोर्ट के बिजनेस से जुड़ गए. गुजरते वक्त के साथ कारोबार ने भी रफ्तार पकड़ी और नए अंदाज़ के शेरों के जरिए मुनव्वर राना भी बेहद मशहूर और मकबूल हुए. मुनव्वर राना ने हज़ारों शेर कहे, सैकड़ों ग़ज़लें लिखीं और कई सारी क़िताबें लिखीं. उनकी क़िताबों की बात करें तो पीपल छांव, बदन सराय, घर अकेला हो गया, बग़ैर नक़्शे का मकान, कहो ज़िल्ले इलाही से, फिर कबीर, नए मौसम के फूल, नीम के फूल, मां, ग़ज़ल गांव और सब उसके लिए की बात होती है. लेकिन जिस एक शेर ने मुनव्वर राना को मुनव्वर किया वो है...
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई
इसके अलावा मां पर उन्होंने जितने भी शेर कहे सब मशहूर हुए. मुनव्वर राना बताते भी थे कि, उनसे पहले ऊर्दू शायरी कच्चे गोश्त की दुकान हुआ करती थी, यहां महबूबा पर खूब लिखा जा रहा था. प्रेमिका के नैन-नक्श और उसके बदन पर शायरी हो रही थी. ऐसे में मुनव्वर राना ने सोचा कि जब कोठे में बैठनेवालियों पर भी शेर कहे जा सकते हैं, तो अपनी मां पर शेर क्यों नहीं कहे जा सकते, घर की औरतों पर, बहनों पर और बेटियों पर शेर क्यों नहीं कहे जा सकते. मुनव्वर राना ने लिखा...
बुलंदियों का बड़ा से बड़ा मुकाम छुआ
उठाया गोद में मां ने तब आसमान छुआ
मुनव्वर राना ऊर्दू मंचों पर जितने मशहूर रहे, हिंदी वालों ने भी उन्हें उतना ही प्यार दिया. उनका एक शेर है कि
लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है
मैं ऊर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है
मुनव्वर राना अपनी जिन रचनाओं की वजह से लोगों के दिल पर राज करते रहेंगे. उनमें मुहाजिरनामा का नाम भी लिया जाएगा. इसमें क़रीब 500 से ज्यादा शेर उन्होंने एक ही सिलसिले में कहे हैं. मुनव्वर राना कहते थे कि एक बार वो पाकिस्तान किसी मुशायरे में गए थे, वहां पर विभाजन के वक्त भारत से गए लोगों से उनकी मुलाकात हई. खुद मुनव्वर राना के चाचा भी विभाजन के वक्त पाकिस्तान चले गए थे. भारत से पलायन कर पाकिस्तान गए लोग आज क्या सोचते हैं, इसी पर उन्होंने पूरी क़िताब लिखी, जो काफी मशहूर हुई.
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं.
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं.
यूं तो शायद ही कोई विषय हो या कोई मुद्दा हो जिनपर मुनव्वर राना ने अपनी स्याही ना उड़ेली हो, लेकिन आज जब मुनव्वर राना के नहीं रहने पर हम उन्हें याद करेंगे तो वे रिश्तों की नाजुक डोर को शायरी के जरिए बयान करने वाले मुकम्मल शायर के तौर पर याद किए जाएंगे. एक बार बहुत पहले एक मुशायरे में निजामत कर रहे मंसूर उस्मानी ने मुनव्वर राना का परिचय कराते हुए कहा था, कि ऊर्दू-हिंदी ग़ज़ल का कोई भी मंज़रनामा मुनव्वर राना के बग़ैर मुकम्मल नहीं होता है. वैसे मुनव्वर राना का एक शेर भी है कि...
ग़ज़ल के सल्तनत पर आजतक कब्जा हमारा है
हम अपने नाम के आगे अभी राना लगाते हैं
इस शोक की घड़ी में जब हिन्दू-उर्दू का एक बड़ा कलमकार हमारे बीच नहीं रहा, मुनव्वर राना की लिखी हुई ये पंक्तियां याद आती है...
दावर-ए-हश्र तुझे मेरी इबादत की कसम,
ये मेरा नाम-ए-आमाल इज़ाफी होगा
नेकियां गिनने की नौबत ही नहीं आएगी
मैंने जो मां पर लिखा है, वही काफी होगा