बिहार के पुलों को लगा `गुरुदास` जैसा चस्का, जानें कौन हैं ये महानुभाव
Bihar Bridge Collapse: गुरुदास को फेमस होने का शौक था. अखबार में नाम आने का शौक था लेकिन जब अखबार में गुरुदास का नाम छपा तो वह फेमस नहीं, बेवकूफ बन चुका था. बिहार के पुलों का भी कमोबेश यही हाल होता दिख रहा है.
Bihar Bridge Collapse: पहले आप... पहले आप वाली कहावत तो आप सभी जानते होंगे लेकिन बिहार में हम फर्स्ट...हम फर्स्ट शुरू हो गया है. बिहार के पुल गिरने के मामले में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगाए पड़े हैं. रात को सोओ तो एक पुल गिरता है और सुबह सोकर उठो तो दूसरा गिर चुका होता है. ऐसा लगता है कि पुलों को भी अखबार में नाम वाली लत लग गई है. पुलों को शायद अखबार में नाम अच्छा लगता है, तभी तो आए दिन पुल वहां सुर्खियां बन जाते हैं. अब तो मीडिया में नाम चमकाने के तमाम विकल्प बन गए हैं. अखबार में छपता है, टीवी पर दिन भर दिखाते हैं कि फलां पुल गिर गया, यूट्यूब पर तमाम वीडियो बनाए जाते हैं और वेबसाइटों पर भी इसकी खबरें प्रकाशित होती रहती हैं. कुल मिलाकर पुलों को मीडिया में हाईलाइट होने का चस्का लग गया है. यह ऐसे ही है, जैसे कहानीकार यशपाल की एक कहानी में 'गुरुदास' 'अखबार में नाम' छपवाने के लिए मोटर के नीचे आ जाता है.
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पुलों को भी गिरने के मामले में थोड़ा गैप लेना चाहिए. अब 24 घंटे में इतने पुल गिर जाएंगे तो मीडिया कितनों को कवर करेगा. पुलों के बीच में जिस तरह की प्रतिस्पर्धा शुरू हुई है, वो तो गलत है न. चलो मान लिया कि पुलों को बनाने में भ्रष्टाचार हुआ है. अच्छी क्वालिटी के सामान कम इस्तेमाल किए गए हैं और मानक के अनुरूप काम नहीं हुआ है, लेकिन फिर भी पुलों को गिरने के मामले में एहतियात बरतनी चाहिए. इससे बिहार का नाम भी खराब होता है न. ये बात इंजीनियर नहीं समझ रहे हैं पर पुलों को तो समझना चाहिए. आखिर इतने गौरवपूर्ण इतिहास के साक्षी रहे बिहार की बदनामी का ख्याल सभी को रखना पड़ेगा. इंजीनियर इस बात का ख्याल न रखें, चलेगा पर पुलों से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती.
अरे भाई! आप पुल हो. आपका काम ही है दो इलाकों, नदी के दो किनारों, दो दिलों को जोड़ना पर आपके गिरने से जोड़ने वाला काम तो हो ही नहीं रहा है. तोड़ने वाला काम चालू हो जाता है. आपको यह समझना चाहिए कि मानव जीवन में आपकी एक गरिमा है, एक भूमिका है, एक स्थान है. कोई भी यूं ही पुल नहीं बन जाता और आप भी यूं ही नहीं बन गए हैं. हजारों लोगों ने इसके लिए सपने देखे होंगे. फिर मांग उठाई होगी. आंदोलन किया होगा और लाठियां खाई होंगी. तब जाकर हुक्मरानों को दया आई होगी और फिर पुल का ऐलान हुआ होगा. डीपीआर बना होगा. नीचे से लेकर ऊपर तक कमीशन सेट हुआ होगा. टेंडर पास हुआ होगा और फिर निर्माण हुआ होगा.
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और ये सब काम बेचारे इंजीनियर लोगों के बिना कैसे हो सकती है. देखिए, बात को समझिए. इंजीनियर लोगों को क्या पता कि आप जोड़ने वाली पार्टी हो. उनके लिए आप केवल पुल हो. उनके लिए आप केवल कमीशन का साधन हो. उनके लिए आप केवल बालू, छड़, सीमेंट और पत्थर का ठोस रूप हो, जिनमें उनकी पीसी फिक्स होती है. उनके लिए इस बात का कोई मतलब नहीं है कि पुल लोगों को जोड़ रहे हैं या तोड़ रहे हैं. अरे भाई! एक पुल बनाने के बाद इंजीनियर लोग अगले शिकार की तलाश में जुट जाते हैं. उनको कहां समय है कि पुल बनाने के बाद वो ठीक से काम कर रहा है कि नहीं, वो भी देखते रहें. इंजीनियर लोगों से इतनी भी उम्मीद करना ठीक बात नहीं है. मुद्दे की बात यह है कि पुलों को नहीं गिरना चाहिए. आखिरी सांस के बाद भी नहीं गिरना चाहिए. अब अखबार में नाम के लिए इतना कोई गिरता है क्या? और अगर इतना गिरता है तो फिर गुरुदास में और बिहार के पुलों में क्या अंतर रह गया.
गुरुदास की स्थिति बिहार के पुलों जैसी
आइए, अब आपको यशपाल की कहानी 'अखबार में नाम' के बारे में भी बता देते हैं. 'अखबार में नाम' कहानी का मुख्य पात्र गुरुदास के मन में नाम कमाने की लालसा रहती है लेकिन वह मौका कोई और उड़ा ले जाता है. इससे गुरुदास मन मसोसकर रह जाता है. नाम कमाने में वह अनंतराम से भी पिछड़ जाता है. अनंतराम स्कूल में हो रही दौड़ में बेहोश होकर गिर जाता है. गुरुदास अपनी क्लास में बनवारी, खन्ना, ख़लीक और महेश से भी पिछड़ जाता है. इनमें से कुछ पढ़ने लिखने में तेज थे तो कुछ गुरुदास से भी गए गुजरे थे. लेकिन गुरुदास उनसे भी इसलिए पिछड़ जाता था कि वे क्लास के सबसे गए गुजरे स्टूडेंट थे और उन्हें सजा मिलती थी तो भी उनका नाम तो होता ही था. उम्र बढ़ने के साथ ही गुरुदास की नाम कमाने की महत्वाकांक्षा और तेज होती जा रही थी और इसके साथ एक निराशा का भाव भी पैदा हो रहा था.
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उसके मोहल्ले के एक नि:संतान लाला ने अपनी संपत्ति दान कर दी तो उनका नाम अखबार में फोटो के साथ छपा. अब गुरुदास सोच रहा था कि उतनी संपत्ति तो अपन के पास नहीं है तो नाम कैसे छप सकता है. गुरुदास उस दुलारे से भी पिछड़ गया, मोहल्ले में प्लेग नामक संक्रामक रोग का पहला पीड़ित व्यक्ति बना. उसका भी फोटो के साथ अखबार में नाम छपा पर गुरुदास के प्रसिद्ध होने की महत्वाकांक्षा को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. दुलारे की खबर जिस अखबार में छपी थी, वह सड़क पर ही उसे पढ़ने लगा था. गुरुदास के मन में भाव आ रहा था कि दुलारे मरते मरते भी अपना नाम कर गया.
वह दुलारे की खबर पढ़ने में इतना मगन हो गया कि एक मोटरकार ने कब उसे ठोक दिया, पता ही नहीं चला. उसे अस्पताल ले जाया गया. इलाज के बीच मोटरकार मालिक हालचाल लेने पहुंचा. मोटरकार मालिक ने पुलिस को दी फरियाद वापस लेने की गुजारिश की तो गुरुदास ने अखबार में नाम छपने की लालसा के बारे में बताया. अखबार में नाम छप गया लेकिन वहीं अखबार लेकर लंगड़ाते हुए कोर्ट में पहुंचे वकील ने जिरह में यह उगलवा लिया कि अखबार में नाम छपवाने के लिए खुद ही मोटरकार के नीचे आ गया था. अब गुरुदास के लिए झेंपने वाला समय था. गुरुदास ने उसी अखबार से अपना मुंह ढक लिया, जिसमें उसकी खबर छपी थी.