पिछले 6 महीनों में केंद्र की राजनीति में जितनी चर्चा बिहार की हुई, उतनी किसी और राज्य की नहीं हो पाई. इसका कारण रहा जातीय जनगणना. बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने जातीय जनगणना करवाकर भाजपा पर दबाव बनाने और बढ़त बनाने की रणनीति अपनाई. जातीय जनगणना के बहाने नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की सरकार ओबीसी वर्ग को अपनी ओर लुभाना चाहती थी और इसी के बहाने इंडिया ब्लॉक को एक संदेश देना चाहती थी कि भाजपा से मुकाबले के लिए नीतीश कुमार से बेहतर नेता कोई और नहीं हो सकता. नीतीश कुमार की सरकार ने न केवल जातीय जनगणना कराया बल्कि उसी के आधार पर आरक्षण का दायरा भी बढ़ा दिया. राजनीतिक पंडितों ने भी इसे मास्टर स्ट्रोक माना और नीतीश कुमार के इस कदम को भाजपा और पीएम मोदी के लिए परेशानी भरा करार दिया. हालांकि हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस ने जातीय जनगणना का मुद्दा उठाया तो यह फुस्स हो गया. 


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नीतीश कुमार ने यह सब रणनीति के तहत किया. उनकी रणनीति यह थी कि जातीय जनगणना में भाजपा को उलझाकर इंडिया ब्लॉक में यह संदेश दिया जाए कि पीएम मोदी की रणनीति की काट केवल और केवल नीतीश कुमार में ही है. जातीय जनगणना में कांग्रेस भी एक कदम आगे चली गई. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने तो पीएम मोदी को पत्र लिखकर पूरे देश में जातीय जनगणना कराने की मांग कर डाली. इसके अलावा पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी राहुल गांधी ने जोर शोर से जातीय जनगणना के पक्ष में आवाज बुलंद की पर हिंदी पट्टी के राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कांग्रेस का यह दांव बेकार साबित हुआ और भारतीय जनता पार्टी ने इन तीनों राज्यों में प्रचंड जीत दर्ज की.


इस तरह नीतीश कुमार ने जो मुद्दा उछाला था, वो कांग्रेस के लिए बेकार साबित हुआ. और नीतीश कुमार की रणनीति भी भाजपा के आगे टिक नहीं सकी. हालांकि नीतीश कुमार के हथियार को कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में ही आजमाकर देख लिया. जाहिर है कि जो रणनीति फेल हो गई, तो रणनीतिकार की वैल्यू भी हल्की हो गई. उसके बाद इंडिया ब्लॉक की चौथी बैठक में जो हुआ, वो सबके सामने है. नीतीश कुमार ने जिस ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल को कांग्रेस के साथ एक टेबल पर बातचीत के लिए मनाया, इन्हीं दोनों नेताओं ने संयोजक और पीएम पद के उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस ​अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को आगे कर दिया.


ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल ने नीतीश कुमार का नाम आगे क्यों नहीं बढ़ाया, यह तो समय बताएगा पर इतना तो स्पष्ट हो गया कि अब इंडिया ब्लॉक का नेतृत्व किसी क्षत्रप के हाथ में नहीं जा रहा. चाहे वो नीतीश कुमार हों, उद्धव ठाकरे हों या फिर अखिलेश यादव. गठबंधन की कमान कांग्रेस के हाथ में ही रहने वाली है. विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद भी अगर कांग्रेस गठबंधन की धुरी बनी रहती है तो यह मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व कौशल और व्यक्तित्व का ही कमाल कहा जाएगा. 


सबसे बड़ी बात यह रही कि नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना के रूप में विपक्ष को हथियार तो थमा दिया पर वे खुद निहत्थे हो गए. अब देखना यह होगा कि इंडिया ब्लॉक को लेकर उनकी क्या रणनीति होने वाली है. सवाल तो यह भी पैदा हो रहा है कि क्या अब भी नीतीश कुमार इंडिया ब्लॉक का हिस्सा रहेंगे या फिर एक बार बिहार की सियासत में कोलाहल पैदा करेंगे. नया साल न केवल बिहार बल्कि देश की राजनीति के लिए भी अहम मोड़ साबित हो सकता है.