वैसे तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) को समकालीन राजनीति में सबसे बड़ा कूटनीतिज्ञ कहा जाता है, लेकिन इस बार वे गच्चा खा गए. उनका गच्चा खाना लाजिमी था क्योंकि दीवार पर लिखी इबारत वे पढ़ नहीं पाए. राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) ने उनको जो सपना दिखाया था, वे उस सपने को हकीकत में जीने लगे थे और कोई भी आदमी जब सपने को हकीकत में जीने लगता है तो हश्र वैसा ही होता है, जैसा नीतीश कुमार का हुआ. बिहार में 20 साल शासन करने के बाद नीतीश कुमार की तमन्ना देश के सबसे शक्तिशाली पद यानी प्रधानमंत्री पद संभालने की थी. आज की राजनीति में किसी भी क्षेत्रीय दल के लिए यह मुमकिन नहीं लगता, क्योंकि पिछले कुछ चुनावों से जनता स्पष्ट बहुमत से सरकारें बना रही है. एक बारगी यह मान भी लिया जाए कि इंडिया ब्लॉक लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election 2024) जीत जाएगा तो भी नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद क्यों दिया जाएगा, इस बारे में एक विश्लेषण कर लेते हैं. 


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बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं. नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू आधी सीटों पर भी चुनाव नहीं लड़ने वाली. भाजपा के साथ भी वह 17 सीटों पर ही चुनाव लड़ी थी तो राजद के साथ हो सकता है कि वह 15 सीटों पर ही चुनाव लड़े. एक बार यह भी मान लिया जाए कि जेडीयू सभी 15 सीटें जीत जाएगी तो इतने सांसद लेकर आप प्रधानमंत्री कैसे बन पाएंगे. इंडिया ब्लॉक में शामिल द्रमुक, टीएमसी और समाजवादी पार्टी, जेडीयू से कहीं ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने वाली हैं. महाराष्ट्र की बात करें तो शिवसेना और एनसीपी भी लगभग 15 या 16 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. उधर, आम आदमी पार्टी गठबंधन के बाद भी लगभग इतनी ही सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है. इन दलों में टीएमसी के बारे में तो स्पष्ट है कि वह 22 या इससे अधिक सीट जीत भी जाए. द्रमुक के बारे में भी यही बात कही जा सकती है. फिर ये दल 15 सीटों वाले जेडीयू के नेता को प्रधानमंत्री क्यों बनने देंगे.


अगर प्रधानमंत्री बनने की बारी आएगी तो क्या टीएमसी नहीं चाहेगी कि उसकी नेता ममता बनर्जी को यह पद हासिल हो. द्रमुक नहीं चाहेगी कि एमके स्टालिन को प्रधानमंत्री बनाया जाए. इसके अलावा 15 सीटें जीतने वाले कई दल अपने नेता को प्रधानमंत्री बनाना नहीं चाहेंगे. क्या आम आदमी पार्टी नहीं चाहेगी कि उसके नेता अरविंद केजरीवाल को देश सबसे शक्तिशाली पद दिया जाए. इन सबके अलावा अगर ये क्षेत्रीय दल अपनी सभी सीटें जीत जाते हैं तो कांग्रेस भी तो इनकी तुलना में तीन गुना या इससे अधिक सांसद जिता सकती है. क्या वो प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावा छोड़ देगी. खुद बिहार में जेडीयू की सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनाने देगा. ऐसे कई सारे सवाल हैं, ​जिस पर शायद नीतीश कुमार ने या तो अध्ययन नहीं किया या फिर वे लालू प्रसाद के सपने के सहारे इंडिया ब्लॉक को मजबूत करने में जुटे रहे. 


एक बात और, जो भी दल इंडिया ब्लॉक से जुड़े हैं, वे 1996 की राजनीति को दोहराना चाहते हैं. इंडिया ब्लॉक के कई नेता तो एचडी देवगौड़ा या इंद्र कुमार गुजराल की सरकार का उदाहरण भी देते रहे हैं. इंडिया ब्लॉक की चौथी बैठक में भी कई नेताओं ने यह दलील दी कि जिस तरह 1996 में चुनाव के बाद प्रधानमंत्री पद का चयन किया गया, उसी तरह 2024 में चुनाव जीतने के बाद हम मिलकर एक प्रधानमंत्री चुन लेंगे. जैसे 1996 में एचडी देवगौड़ा और 1997 में इंद्र कुमार गुजराल के नाम की लॉटरी लगी थी, उसी तरह इंडिया ब्लॉक के नेता अंदर ही अंदर खुद को रेस में मानकर चल रहे थे. नीतीश कुमार भले ही अपना नाम खुद से पीछे कर रहे थे लेकिन उनकी पार्टी जेडीयू जोर शोर से नीतीश कुमार के नाम को आगे बढ़ा रही थी. जेडीयू ने तो इसलिए ललन सिंह की टीम से किनारे कर दिए गए केसी त्यागी को राष्ट्रीय प्रवक्ता पद की जिम्मेदारी सौंपी थी, ताकि वे पीएम पद के लिए नीतीश कुमार के नाम पर अन्य दलों के बीच सहमति बना सकें.


नीतीश कुमार के मन में भी शायद 1996 का ही खाका चल रहा था. उन्हें लग रहा था कि 2024 में 1996 को दोहराया जा सकता है और हो सकता है कि उनके नाम पर सभी दल एकमत हो जाएं. 2024 तो छोड़िए, 2023 में तो उनके नाम की चर्चा तक नहीं हुई तो 2024 में उन्हें कैसे मौका मिल पाएगा. कुल मिलाकर इंडिया ब्लॉक भले ही नीतीश कुमार के अतिरिक्त प्रयासों का नतीजा रहा, लेकिन प्रधानमंत्री या फिर संयोजक पद के लिए नीतीश कुमार के नाम पर पहली बैठक से ही कई दल कन्नी काटने लगे थे. उधर, नीतीश कुमार को पहले पटना, फिर बेंगलुरू, फिर मुंबई और अंत में दिल्ली की बैठक से पहले एक उम्मीद जरूर थी कि उनके नाम पर चर्चा हो या फिर कोई दल उनके नाम को आगे बढ़ाए, लेकिन दिल्ली की बैठक से यह बात क्लीयर हो गई कि नीतीश कुमार अब इंडिया ब्लॉक के लिए कोई चेहरा नहीं होंगे. नीतीश कुमार को यह बात पहले समझ जानी चाहिए थी.