Jharkhand News: साझेदारी और हिस्सेदारी के मंत्र से झारखंड के इन गांवों ने लिखी बदलाव की चमत्कारिक कहानियां
सामुदायिकता और सामूहिकता के प्रयोग से सामाजिक बदलाव की चमत्कारिक कहानियां कैसे लिखी जा सकती हैं, इसकी खूबसूरत मिसालें आपको झारखंड के कई गांवों में मिल जाएंगी.
रांचीः सामुदायिकता और सामूहिकता के प्रयोग से सामाजिक बदलाव की चमत्कारिक कहानियां कैसे लिखी जा सकती हैं, इसकी खूबसूरत मिसालें आपको झारखंड के कई गांवों में मिल जाएंगी. खेती, सिंचाई, पशुपालन, स्वच्छता, नशाबंदी, वन सुरक्षा, शादी-विवाह, रोजगार से जुड़ी छोटी-बड़ी समस्याएं परस्पर साझेदारी और सामूहिक हिस्सेदारी से हल की जा रही हैं. झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के आदिवासी बहुल डोभापानी गांव ने लड़कियों की शादी में परिवार पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ की समस्या का हल सामूहिक जिम्मेदारी के फॉर्मूले से ढूंढ़ निकाला. इस गांव में किसी भी परिवार की लड़की की शादी हो, खर्च पूरा गांव मिलकर उठाता है.
पूरा गांव एक साथ लड़की के माता-पिता, भाई-बहन की भूमिका में उठ खड़ा होता है. लड़की के मां-पिता पर खर्च का बोझ न के बराबर होता है. अब डोभा पानी गांव का यह प्रयोग आस-पास के दूसरे गांव के लोग भी अपनाने लगे हैं. डोभापानी गांव में संताली आदिवासियों के करीब 40 घर हैं.
गांव में पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था के तहत पंच होते हैं, जिन्हें यहां माझी-मोड़े कहा जाता है. ये इस बात की जिम्मेदारी उठाते हैं कि किसी भी परिवार में बेटी की शादी हो तो गांव के हर घर से चावल, दाल, सब्जी और एक निर्धारित सहयोग राशि जुटाते हैं.
आम तौर पर प्रत्येक घर से दो सौ रुपए नकद और पांच पोयला (पांच किलो) चावल व अन्य सामग्री इकट्ठा की जाती है. पंचों ने एक सामुदायिक फंड भी बना रखा है, जिससे 25 किलो मुर्गा और दस किलो मछली भी उपलब्ध कराई जाती है. अब इस गांव में किसी भी लड़की की शादी के लिए किसी परिवार को बाहर से कर्ज नहीं लेना पड़ता.
झारखंड की राजधानी रांची से 32 किलोमीटर दूर पहाड़ी की तलहटी में स्थित आराकेरम गांव ने तो सामुदायिकता के ऐसे अद्भुत प्रयोग किए, जिसकी चर्चा देश भर में होने लगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मन की बात कार्यक्रम में इस गांव की चर्चा कर कर चुके हैं.
इस गांव में दाखिल होते ही आपको एक बोर्ड दिखेगा, जिसपर यहां की सामुदायिकता के नियम के लिखे हैं. ये नियम हैं - श्रमदान, नशाबंदी, लोटा बंदी (खुले में शौच पर प्रतिबंध), चराई बंदी (मवेशियों को लावारिस छोड़ने पर रोक), कुल्हाड़ी बंदी (पेड़-पौधे काटने पर रोक), दहेज प्रथा बंदी, प्लास्टिक बंदी और डीप बोरिंग बंदी. ये नियम गांव के लोगों ने आपसी सहमति से तकरीबन छह साल पहले खुद पर लागू किये थे.
श्रमदान इस गांव के विकास का मुख्य आधार है. श्रमदान में भी सभी घरों के लोग भाग लेते हैं. गांव के बीचो-बीच चौक पर एक पोल पर लाउडस्पीकर लगाया गया है, जिससे आवाज देकर हर सुबह चार बजे बच्चों और उनके अभिभावकों को जगाया जाता है. बच्चे जागने और नित्यक्रम के बाद पढ़ाई में जुट जाते है, वहीं पूरे गांव में एक साथ झाड़ू लगाकर साफ-सफाई का अभियान चलाया जाता है.
गांव के लोगों ने श्रमदान कर देसी जुगाड़ से पहाड़ से बहते झरने के पानी को, एक निश्चित दिशा दी, जिससे न केवल मिट्टी का कटाव और फसल की बर्बादी रुकी, बल्कि खेतों को भी पानी मिल रहा है. गांव के सभी घरों के आगे चार गुणा तीन फीट के गड्ढे का निर्माण कराया गया है, जिसमें घर से बाहर निकलने वाले पानी संरक्षित किया जा रहा है.
इसके साथ ही बारिश में सड़क बहने वाले पानी का भी काफी हद तक संरक्षण संभव हो सका. झारखंड के दूसरे जिलों में आदर्श गांव के लिए आरा-केरम का मॉडल अपनाने की पहल हो रही है. खूंटी जिला प्रशासन ने आरा-केरम के ग्रामीणों का यह मॉडल एक साथ जिले के 80 गांवों में लागू किया.
रांची से करीब 90 किलोमीटर दूर गुमला के बसिया अंचल के आरया पंचायत का गांव है कुरडेगा. सिर्फ 32 परिवारों वाले इस गांव के लोग टोली में बंटकर जंगलों की पहरेदारी करते हैं. बीते तीन साल से जंगल में आग नहीं लगी है। पेड़ नहीं काटे जाते. कुछ नये पौधे लगाये जा रहे हैं.
लोगों ने नशाखोरी से भी किनारा कर लिया है. ग्राम संगठन व नेशनल लाइवलीहुड मिशन का इस अभियान में अहम हाथ रहा. पांच-छह साल पहले गांव के लोगों ने कुल्हाड़ी बंदी अभियान चलाया. उसके बाद से कच्चे पेड़ नहीं काटते हैं.
पश्चिमी सिंहभूम जिले का गांव कुन्दुबेड़ा भी सामूहिक श्रमदान के अभियान के लिए चर्चित रहा है. आदिवासी बहुल इस गांव में जब धान कटाई का वक्त होता है तो पूरा गांव एक साथ मिलकर इसे अंजाम देता है.
यह परम्परा पुरखों से चली आ रही है. इस परंपरा को आदिवासी ‘हो’ भाषा में ‘देंगा-देपेंगा‘ कहते हैं. धान की कटाई के समय बाहर रहने वाले लोग भी गांव आते हैं.
रांची से 30 किलोमीटर दूर खूंटी जिले के कर्रा प्रखंड में घुन्सुली पंचायत में एक गांव है गुनी. इस गांव के लोगों ने “खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में” के फॉर्मूले पर काम किया. खुद से श्रमदान कर लगभग 300 से ज्यादा एकड़ में मेड़बन्दी की. सुखद परिणाम सामने आया. बंजर पड़े खेतो में वर्षा का जल रोक उन्हें पुनः उपजाऊ बना लगभग 300 एकड़ से भी ज्यादा की खेतो में फसलों की हरी चादर बिछा दी. इस गांव को पिछले साल नेशनल वाटर अवार्ड में तीसरे सर्वश्रेष्ठ गांव के तौर पर चुना गया.
चतरा जिले के सिमरिया प्रखंड के फतहा गांव में कोविड के दौरान गांव लौटे चार युवकों ने गांव के दर्जनों लोगों को स्वरोजगार की राह दिखाई. गांव के चार युवक युवक मेराज, हसमत, खालिद और नदीम पहले दिल्ली और बनारस जाकर कशीदाकारी का काम करते थे. कोविड के दौरान परदेस में होने वाली मुश्किलों को देखकर उन्होंने गांव लौटकर अपने घरों से ये काम करने का फैसला लिया और फिर देखते-देखते उनका हुनर गांव के हर उस युवा तक जा पहुंचा, जिनके पास पहले खेती और दूसरों के यहां मजदूरी के सिवा कोई काम न था.
आज गांव में लगभग तीन दर्जन लोग महानगरों के बाजारों से मिलने वाले ऑर्डर को पूरा करने के लिए हर रोज सुबह से शाम तक कशीदाकारी में जुटे रहते हैं. आज यहां का हर कारीगर गांव में रहकर 18 से 25 हजार रुपये महीने तक की कमाई कर रहा है.
हजारीबाग जिले के इचाक प्रखंड के बरियठ गांव के लोगों ने किसी की मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार में वर्षों से कायम रुढ़िवादी सोच को बदलने का साहसिक फैसला लिया. यहां नियम था कि किसी भी मृतक को कंधा वही दे सकता था, जिसके माता-पिता की मृत्यु हो गई हो. नतीजतन अर्थी उठाने में ऐसे लोगों को तलाशना बेहद मुश्किल हो जाता था.
पिछले साल ग्रामीणों ने बैठक की और तय हुआ कि हर व्यक्ति अर्थी को कंधा दे सकता है, बेटा-बेटी कोई भी मुखाग्नि दे सकता है और गांव का कोई भी व्यक्ति किसी मृतक की अस्थियां नदी में जाकर प्रवाहित कर सकता है.
इनपुट-आईएएनएस के साथ