सासाराम: बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly election) में एनडीए गठबंधन में सीट शेयरिंग मसौदे के बाद से बीजेपी की कई परंपरागत सीटें अब जेडीयू के पाले में आ गई हैं. ऐसे में कई ऐसे बीजेपी के उम्मीदवार जो टिकट की आस में बैठे थे, उनका दिल दुखा और उन्होंने पार्टी से किनारा भी कर लिया. 


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यह ऐसी ही एक सीट की कहानी है जहां बीजेपी के दो-दो उम्मीदवार पार्टी से नाराज हुए. एक आलाकमान के समझाने के बाद शांत हुआ तो दूसरे ने एलजेपी ज्वाइन कर अलग ही मोर्चा खोल दिया.


सासाराम सीट के हालिया समीकरणों की मानें तो राजनीतिक पंडित से लेकर आम लोगों में यह चर्चा है कि यहां एनडीए के अंदरूनी कलह के बीच महागठबंधन के उम्मीदवार को फायदा होता दिख रहा है. वो एक मशहूर कहावत है कि दो लोगों के झगड़े के बीच तीसरे को फायदा होता है. अब कहानी जरा तसल्ली से समझिए.


त्रिकोणीय मानी जा रही है लड़ाई
सासाराम विधानसभा सीट पर फिलहाल लड़ाई त्रिकोणीय मानी जा रही है. पहला खेमा है एनडीए से जेडीयू के प्रत्याशी अशोक कुमार सिंह का जो फिलहाल सिटिंग एमएलए भी हैं. दूसरा खेमा है महागठबंधन का जहां से आरजेडी के प्रत्याशी राकेश कुमार गुप्ता अपना सियासी सफर शुरू कर रहे हैं. तो एक खेमा है बागी नेता का. नेता का नाम है रामेश्वर चौरसिया, जो नोखा से बीजेपी के टिकट पर विधायक रह चुके हैं और संघ के करीबी नेताओं में से हैं.


नोखा से विधायक रहे, अब सासाराम के चुनावी मैदान में उतरे चौरसिया
रामेश्वर चौरसिया ने पार्टी का दामन छोड़ा और एलजेपी ज्वाइन कर सासाराम से चुनावी मैदान में उतर गए. अब सवाल यह उठता है कि नोखा से तीन बार विधायक रहे रामेश्वर चौरसिया के साथ ऐसा क्या हुआ कि उन्हें सासाराम से चुनावी मैदान में दांव ठोकना पड़ा. दरअसल, एनडीए में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के बीच यह डील हुई कि नोखा की सीट जेडीयू के पाले में जाएगी. इसकी सूचना बीजेपी को पहले से थी. ऐसे में पार्टी ने रामेश्वर चौरसिया से बात की और उन्हें भरोसा दिया गया.


जेडीयू को मिली सीट और सब गुड़गोबर हो गया
बकौल रामेश्वर चौरसिया पार्टी ने उन्हें भरोसा दिया कि वह उन्हें सासाराम से चुनावी मैदान में उतारने की तैयारी कर रहे हैं. सासाराम जहां से बीजेपी के तुरुप का इक्का माने जाने वाले पांच बार के विधायक ज्वाहर प्रसाद चुनावी मैदान में एनडीए की तरफ से नजर आते हैं. लेकिन टिकट न तो ज्वाहर प्रसाद को मिली और न ही रामेश्वर चौरसिया को. कारण, यह सीट जेडीयू के पाले में गिरा. तमाम बातचीत और प्रेशर पॉलिटिक्स के बाद जेडीयू ने इस सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे जाने की जिद ठान ली.


हालांकि, यह बस संयोग नहीं था. निवर्तमान विधायक अशोक सिंह ने इसके लिए पहले ही अपना होमवर्क कर लिया था. चुनावी तारीखों के ऐलान से महज 2 हफ्ते पहले आरजेडी के टिकट पर चुनाव जीत विधानसभा पहुंचने वाले अशोक सिंह ने पाला बदला और जेडीयू की नाव पर सवार हो गए. पार्टी में शामिल होने की शर्त रखी कि जेडीयू उन्हें सासाराम से बतौर एनडीए उम्मीदवार उतारेगी. 


अशोक सिंह ने किए एक तीर से दो निशाने
अपने इस एक फैसले से उन्होंने एक तीर से दो निशाना कर लिया. पहला- एनडीए के अपने साझीदार ज्वाहर प्रसाद को चारो खाने चित कर दिया और दूसरा एनडीए में शामिल होते ही अपने वोटबैंक को और मजबूत कर लिया. लेकिन यह कहानी यहीं खत्म हो जाती तो अलग बात थी. यहां से अगले भाग की शुरुआत होती है जब नए खिलाड़ी रामेश्वर चौरसिया की होती है सासाराम विधानसभा के चुनावी मैदान में एंट्री. 


बागी हो गए रामेश्वर चौरसिया
रामेश्वर चौरसिया, उन चंद नामों में है जो बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी से बागी हो कर एलजेपी में शामिल हुए हैं और पार्टी की विचारधारा के साथ ही चुनावी समर में जमे हुए हैं. ज्वाहर प्रसाद को टिकट नहीं मिला तो उन्होंने भी आरएलएसपी से नामांकन भरने की तैयारी की. फिर पार्टी आलाकमान ने समझाया तो मान भी गए और बड़ा दिल रखकर बीजेपी के कार्यकर्ता बन कर बैठ गए. बैठे तो फिर चुनावी मैदान में गठबंधन के उम्मीदवार का प्रचार करने भी नहीं उतरे.


ज्वाहर प्रसाद बीजेपी के लिए तुरुप का इक्का
अब जरा जातीय गणित को समझते हैं. सासाराम विधानसभा पिछड़े क्षेत्रों में आता है जहां पासवान, कुशवाहा, साह, गुप्ता, यादव और अन्य पिछड़े वोटरों की बहुलता है. ऐसे में इस सीट पर वैसे उम्मीदवार ही जीत दर्ज कर पाते हैं जो इन वोटरों के फेवरेट बन कर दिखात हैं. ज्वाहर प्रसाद बीजेपी की तरफ से इस रोल में और इस फ्रेम में फिट बैठते थे. इस बार उनकी अनुपस्थिति में जेडीयू प्रत्याशी अशोक कुमार सिंह वोटरों को रास नहीं आ रहे.


काम आ रहा है आरजेडी का जातीय गणित
वहीं, महागठबंधन की तरफ से आरजेडी ने दांव खेला और पहली बार चुनावी मैदान में उतरे राकेश कुमार गुप्ता. महागठबंधन प्रत्याशी जिस जाति से आते हैं, सासाराम विधानसभा में उनकी संख्या अच्छी खासी है. कहा तो यह भी जाता है कि गुप्ता और कुशवाहा वोटर जिस ओर रूख कर लेते हैं, जीत का सेहरा उन्हीं के सर पर सजता है. ऐसे में राकेश कुमार गुप्ता यहां पर महागठबंधन को लीड देते नजर आ रहे हैं.


ये रहे हैं अब तक सियासी समीकरण
अब जरा अब तक के समीकरणों को समझते हैं. 1990 से पहले इस सीट पर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का दबदबा रहता था. 1962 और 1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी ने आखिरी बार यह सीट अपने नाम की थी. इसके बाद 1977 और 1980 में जनता पार्टी और 1985 में रामसेवक सिंह ने लोकदल से यह सीट जीती. 1990 के बाद से बीजेपी ने इस सीट पर जैसे झंडा गाड़ दिया हो. 1990 में बीजेपी के टिकट पर पहली बार विधायक बने ज्वाहर प्रसाद यहां से पांच बार प्रतिनिधि चुने गए.


हालांकि, 2000 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने अशोक सिंह के जरिए अपना खाता जरूर खोला था लेकिन दोबारा वापसी के लिए अशोक सिंह को 15 साल इंतजार करना पड़ा और 2020 में महागठबंधन की तरफ से दोबारा विधायक चुन कर आए. अब देखना यह है कि इस बार सासाराम के चुनावी रण में कौन सा उम्मीदवार बाजी मारता है.