उनकी आवाज में तनाव, उदासी और आंखों में नमी थी. 'मैं उसका बड़ा भाई हूं, बचपन से आज तक मुझसे बिना पूछे, कुछ नहीं किया लेकिन अब शादी के बाद सारे फैसले खुद लेने लगा है, बस बता देता है.' तो इसमें परेशानी क्‍या है, वह बड़ा हो गया है. उसके पास शानदार करियर है. आप उसकी चिंता में क्‍यों घुले जा रहे हैं. मैंने उन्‍हें टोका. आप नहीं समझेंगे. मुझे बहुत ही बुरा लग रहा है, मैं एकदम अकेला हो गया हूं. मैंने कहा-कैसे, आपका भरा पूरा परिवार है, आपकी पत्‍नी और बच्‍चे हैं. वह तो आपसे सलाह ले रहे हैं! क्‍या आपके भाई ने आपका सम्‍मान कम कर दिया है?


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'नहीं, पूरा सम्‍मान देता है, बस फैसले की जानकारी बाद में मिलती है, इससे ठेस लगती है'- उनकी आवाज कुछ बेहतर हुई. सच मानिए यह एक मानसिक ठेस है. इसका कोई आधार नहीं. एकदम नकली और मनोविकार जैसी है. उनका संकट वही है, जो हममें से ज्‍यादातर लोगों का है. हम छोटों को हमेशा छोटा ही समझना चाहते हैं. अरे भाई, आपका भाई बड़ा हो गया. अब उसे उसके फैसले करने दीजिए. हम सम्‍मान और सलाह को मिक्‍स कर रहे हैं, बुरी तरह से. यह भी एक कारण है कि परिवार में मनमुटाव और रिश्‍तों में संघर्ष बढ़ रहा है. 


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इन दिनों बड़े परिवार के लिए हवेलियां या बड़े घर तो रहे नहीं तो लोग छोटे-छोटे घरों में रह रहे हैं, दुर्भाग्‍य से इसे परिवार का बिखरना मान लिया जाता है. जो कि सरासर गलत है, अरे भाई, जब जगह कम या नहीं है तो अलग-अलग रहने में क्‍या बुराई है. अलग-अलग रहना..बिखरना नहीं है. परिवार का बिखरना है-संवाद बंद होना. मतभेद इतना बढ़ जाना कि वह मनमुटाव में बदल जाए और यह सब हमारी इसी सोच का हिस्‍सा है, जिसमें हम हर परिवार के हर सदस्‍य के हर फैसले में शामिल होना चाहते हैं. यह बदलते समय के हिसाब से खुद को नदी की धारा से काट लेने जैसा है.


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हर किसी के अपने जीवन के बारे में अपनी राय और सपने हैं. उन्‍हें फैसले लेने दीजिए. दरअसल भारतीय समाज परंपरागत रूप से अपने निर्णय खुद न करने वाला समाज है. हम संयुक्‍त परिवार की परंपरा वाले समाज रहे हैं. सबसे सीनियर सदस्‍य ने जो कह दिया, सो कह दिया. किसी जमाने में यह हमारे समाज का सबसे लोकप्रिय बुजुर्ग वाक्‍य होता था. समय के साथ इसका असर कम हुआ, लेकिन अभी भी इसके अवशेष पर्याप्‍त रूप से बाकी हैं. बच्‍चों के सारे निर्णय बड़े ही करेंगे. यहां तक कि वह कब क्‍या खाएं, पहने जैसे निर्णय भी. और इसे वह अधिकार से जोड़ लेते हैं. आगे चलकर यह आदत उसी बड़े संघर्ष में बदल जाती है, जिससे यह लेख शुरू हुआ. 


क्‍योंकि, हर किसी को पूरा यकीन है कि उसके पास एकदम गजब के 'माइंडब्‍लोइंग आइडियाज' हैं. घर, परिवार और ऑफिस के लिए, लेकिन कोई सलाह लेना चाहता ही नहीं. यहां तक तो फि‍र भी ठीक है लेकिन परेशानी तब बढ़ जाती है, जब आप सलाह देने पर एकदम आमादा हो जाएं. जब आप अपनी सलाह को अधिकार मानकर देने लगते हैं, तो संघर्ष, तनाव बढ़ जाता है. 


आपके निर्णयों में परिवर्तन करने या उसे नहीं मानने का मतलब यह नहीं है कि आपका सम्‍मान कम हो गया. हमारी भावना सही होना या दूसरे के लिए उसमें चिंता, सरोकार होना एक अलग बात है और दोस्‍त, परिजन को आपकी बात पसंद आना अलग बात है. जबरन अपनी राय मनवाने से किसी को भी ठेस लग सकती है, भले ही वह कितना भी करीबी रिश्‍ता क्‍यों न हो. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह आपका छोटा, परिवार का सबसे छोटा सदस्‍य क्‍यों न हो. अब सभी का एक्‍सपोजर पहले की तुलना में सौ प्रतिशत बढ़ गया है. पहले यह एक्‍सपोजर केवल सबसे सीनियर सदस्‍य यानी दादा जी के पास होता था. इसलिए उनकी सलाह सबसे सही मानी जाती थी (हालांकि वह सही होती हो इसकी कोई गारंटी नहीं होती थी), लेकिन चूंकि अब दुनिया सबके लिए खुल रही है, सुलभ हो रही है, सो सबके पास अपने विचार और अनुभव हैं. 


कुछ दिनों के लिए यह फॉर्मूला अपनाकर देखिए. छोटों को भरपूर सम्‍मान दें, यह आपका काम है. छोटे आपसे सलाह मांगे, यह उनका काम है. और हां सलाह हमेशा मांगने पर ही दें. 


(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


(https://twitter.com/dayashankarmi)