नई दिल्ली: गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पूरी ताकत झोंक दी है. राहुल गांधी की अगुवाई में पार्टी ताबड़तोड़ रैलियों के साथ सोशल मीडिया पर भी एग्रेसिव अप्रोच अपनाए हुए हैं. कांग्रेस के अब तक के चुनाव प्रचार पर नजर डालें तो पता चलता है कि कांग्रेस वही गलती दोहरा रही है, जो उसने साल 2012 के विधानसभा चुनाव और यूपी इलेक्शन में की थी. भारतीय राजनीति में इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि जातीय समीकरण बिठाए बिना कोई चुनाव जीता जा सकता है. चुनाव जीतने के इस मूलमंत्र में ही कांग्रेस की रणनीति कमजोर साबित हो रही है. आइए जानें कांग्रेस किन मोर्चों पर गलतियां दोहरा रही हैं.


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पाटीदारों पर फोकस से कांग्रेस को हो सकता है नुकसान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केंद्र में आने के बाद से गुजरात में पाटीदारों ने हार्दिक पटेल की अगुवाई में बड़ा आंदोलन किया. हालांकि तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल राहत पैकेज की घोषणा कर पाटीदारों के आंदोलन को कुंद करने में कामयाब रही थीं. इस आंदोलन को आधार बनाकर कांग्रेस का पूरा फोकस पाटीदारों पर है. राहुल गांधी अपनी जनसभा में भी ज्यादातर पाटीदारों की बातें करते देखे जा रहे हैं. कांग्रेस की इस रणनीति से गैर पाटीदार ओबीसी जातियां उनसे दूर हो सकती है. 


दरअसल, 1985 में पाटीदारों ने ही अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिए जाने का विरोध किया था. अब पाटीदार जब आरक्षण की मांग कर रहे हैं तो दूसरी ओबीसी जातियां इनके खिलाफ गोलबंद हो रही हैं. वहीं बीजेपी केवल पाटीदारों को पाले में करने के बजाय अन्य ओबीसी जातियों पर भी फोकस कर रही है. इसी साल हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के गठबंधन का ध्यान केवल यादव+मुस्लिम+कुछ फॉरवर्ड वोटबैंक पर था. वहीं बीजेपी ने बाकी की बची हुई 50 फीसदी जातियों को रिझाने की कोशिश की, जिसमें वे सफल भी रहे.


गैर पाटीदारों का कम्बिनेशन आजमाकर सफल हो चुके हैं पीएम मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब तक गुजरात में रहे उन्होंने गैर पाटीदारों का एक ऐसा वोट बैंक तैयार किया था, जिसके दम पर वे तीन बार चुनाव जीते. पीएम मोदी ने दलितों, अनूसूचित जातियों, पिछड़ी जातियों, अन्य पिछड़ी जातियों और आदिवासियों को हिंदुत्व के नाम पर एकजुट किया था. ये सभी जातियां पाटीदारों से अपना अलगाव मानती हैं.


'खाम' कम्बिनेशन को दोहरा पाने में नाकाम हो रही है कांग्रेस
गुजरात के सन् 1980 के दशक की राजनीति पर गौर करेंगे तो उस दौर में कांग्रेस ने जातीय समीकरण साधने के लिए 'खाम' फॉर्मूला तैयार किया था. यह एक ऐसा फॉर्मूला था, जिसके दम पर कांग्रेस से सत्ता छिनना नामुमकिन था, बदलते दौर में बीजेपी 'खाम' के तहत आने वाली कई जातियों का झुकाव अपनी ओर कराने में सफल हो चुकी है. 'खाम' फॉर्मूले के तहत क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमानों का धुर्वीकरण किया गया था. इन जातियों को मिलाकर गुजरात की 70 फीसदी आबादी है. राज्य की राजनीति में सक्रिय रहते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने बड़े चालाकी से क्षत्रिय और हरिजनों को खाम से अलग करने में सफल हो गए थे. वहीं कांग्रेस इन्हें एकजुट करने में पूरी तरह नाकाम साबित हो रही है.


कांग्रेस के पास नहीं है कोई चेहरा
पिछले दो दशक की राजनीति पर नजर डालें तो किसी भी चुनाव में चेहरा अहम होता है. काफी हद तक वोट पार्टी के बजाय चेहरे के दम पर मिलते हैं. गुजरात की राजनीति में जहां बीजेपी के पास चर्चित चेहरों की लिस्ट लंबी-चौड़ी है, वहीं कांग्रेस के पास एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसे पूरे राज्य के लोग पहचानते हों. जब किसी चुनाव में किसी दल के पास जब चेहरा नहीं होता है तो वह केंद्रीय चेहरों को आगे करके प्रचार करती हैं. इस मामले में कांग्रेस के पास एक मात्र विकल्प अहमद पटेल हैं. वहीं राहुल गांधी की अब तक जनसभाओं में कही गई बातों पर गौर करें तो वे कह रहे हैं बीजेपी गुजरात में दिल्ली के रिमोट से सरकार चला रही है. ऐसे हालात में जनता के सामने असमंजस की स्थिति है कि कांग्रेस के पास राज्य में मुख्यमंत्री का चेहरा कौन है?