Dwarka Ki Baoli: द्वारका का नाम जहन में आते ही बहुमंजिला इमारतें, चौड़ी सडकें, दुधिया रोशनी, बड़े-बड़े मॉल्स और व्यस्त मार्केट दिखने लगती हैं, लेकिन इस व्यस्त जगह के बीच चुपचाप और खामोशी में लिपटी एक ओर भी जगह है. जो कभी इस पूरे इलाके में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती थी पर आज भागती-दौडती जिंदगी और आधुनिक लाइफस्टाइल ने इसके महत्व को कहीं ना कहीं खत्म कर दिया है. ये जगह द्वारका सेक्टर 12 के पॉकेट-1 स्थित 'द्वारका की बावली' है. हालांकि कभी-कभी यहां धूमते-फिरते कुछ युवा सेल्फी व फोटोग्राफी करने आते हैं.


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बता दें कि यह बावली आयतकार अनगढ़ पत्थरों से निर्मित है. तीन मंजिला बने इस बावली में एक कुआं है. इतिहासकार बताते हैं कि इस बावली का निर्माण 16वीं शताब्दी की शुरुआत में लोदी वंश के सुल्तानों द्वारा किया गया था. जिससे लोहारहेडी गांव के निवासियों यानि पश्चिमी दिल्ली के लोग अपनी प्यास बुझाया करते थे. बाद में इसी लोहारहेडी का नाम पप्पनकलां गांव पड़ गया. जिस पर दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) द्वारा साल 1980 में द्वारका उपनगरी बनाने की शुरुआत की गई.


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बात अगर बावली के स्थापत्य शैली की करें तो इसे पठान काल की बताया जाता है. बावली की उत्तर दिशा की ओर से सीढियां हैं जोकि सतह पर स्थित अष्टकोणीय टैंक तक जाती है. 22 सीढियों वाली इस बावली की खूबसूरती दो मेहराबों से काफी बढ़ जाती है. जिन्हें देखकर ऐसा लगता है कि इसकी आंतरिक दीवारों और मेहराबों पर पलस्तर किया गया होगा. इस बावली की देख-रेख की जिम्मेदारी पुरातत्व विभाग और दिल्ली सरकार की है.


इस बावली को लेकर द्वारका के रामगोपाल बगेल और अजीत कुमार ने बताया कि लोहारहेडी गांव के अब कोई अवशेष बचे नहीं हैं, सिर्फ जफर हसन की किताब से ही पता चलता है कि यहां कभी लोहारहेडी नाम का गांव था. रही बात पप्पनकलां गांव की तो इसे डीडीए द्वारा नाम दिया गया था. अगर द्वारका की बावली का संरक्षण सही तरीके से किया जाए तो आज भी इलाके में जल समस्या से बहुत हद तक निजात पाई जा सकती है.


Input: चरणसिंह सहरावत