नई दिल्ली: दुनियाभर के कई देशों में ह्यूमन ट्रैफिकिंग या मानव दुर्व्‍यापार जैसे घृणित कार्य को अंजाम दिया जा रहा है और इसके दुष्प्रभाव से भारत भी अछूता नहीं है. खौफनाक पहलू यह है कि ह्यूमन ट्रैफिकिंग में लिप्त लोगों का सबसे ज्‍यादा और आसान शिकार बच्‍चे होते हैं. ट्रैफिकिंग के बाद इन बच्‍चों को घरेलू नौकर के रूप में, होटल या ढाबों पर, चूड़ी या प्‍लास्टिक निर्माण करने वाले जैसे कारखानों में अपना बचपन खपाना पड़ता है. 12 से 14 घंटे काम के बदले में इन्‍हें मिलता है थोड़ा सा खाना और जरा सी गलती पर बेरहमी से पिटाई. हालांकि कुछ ऐसे खुशनसीब बच्‍चे भी होते हैं, जो इस नर्क से निकलने में कामयाब हो जाते हैं और जीवन में आगे बढ़कर अन्य बच्चों को राह दिखने का काम भी कर रहे हैं. 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

ये भी पढ़ें: 'अलादीन का चिराग' नहीं रोकेगा चाइल्‍ड ट्रैफिकिंग, सामूहिक प्रयास से ही खत्म होगा ये सिलसिला


आइए बताते हैं एक ऐसे बच्‍चे की कहानी, जो 10 साल की उम्र में इस नर्क भरी जिंदगी से न केवल निकला, बल्कि अपनी मेहनत के दम पर अब इंजीनियर बनने की राह पर है. नरेंद्र नाम का युवक आज जयपुर की यूनिवर्सिटी ऑफ इंजीनियरिंग एंड मैनेजमेंट से इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग में बीटेक की पढ़ाई कर रहा है. 


पीटने का मौका नहीं छोड़ता था होटल मालिक 
बिहार के सीतामढ़ी जिले के रहने वाले 19 साल के नरेंद्र कुमार कहते हैं, मैं जब केवल 10 साल का था, तब मुझे अच्‍छे पैसे व काम का लालच देकर नेपाल लाया गया, लेकिन यहां पहुंचते ही मेरे सारे सपने टूट गए. मुझे एक होटल के काम में झोंक दिया गया. यहां रोजाना अमानवीय परिस्थितियों में 12 घंटे से भी ज्‍यादा काम करना पड़ता था. खाने के नाम पर बचा-खुचा मिलता था और पैसे भी नाममात्र के. नम आंखों से वह याद करते हैं, होटल मालिक मुझे गालियां देता रहता था और मुझे पीटने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता था. 


नरेंद्र बताते हैं कि एक बार उनसे पेंट का डिब्‍बा गिर गया और इसके बाद होटल मालिक ने उन्‍हें बहुत बुरी तरह से पीटा था. वह कहते हैं कि इसके बाद मैंने अपने जीवन में तय कर लिया कि यहां से किसी भी सूरत में निकलना है, लेकिन ये आसान नहीं था. लेकिन जहां उम्‍मीद हो, वहां करिश्‍मा हो ही जाता है. नोबेल शांति पुरस्‍कार विजेता कैलाश सत्‍यार्थी के संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के कार्यकर्ताओं की औचक छापेमारी में नरेंद्र समेत कई बच्‍चों को इस नारकीय जीवन से मुक्ति मिल गई. इसके बाद नरेंद्र को उनके घर सीतामढ़ी भेजा गया. हालांकि अब दूसरा मुश्किल सवाल था कि आगे क्‍या करना है क्‍योंकि घर की आर्थिक स्थिति ऐसी थी नहीं कि वह स्‍कूल जा सके.


ये भी पढ़ें: राकेश अस्थाना अपने विदाई समारोह में बोले- दुनियाभर में सबसे उम्दा फोर्स है दिल्ली पुलिस


जयपुर के बाल आश्रम में बदल दी जिंदगी 
ऐसे में उसे जयपुर स्थित बाल आश्रम का सहारा मिला. यह एक ऐसा स्‍थान है जहां बालश्रम, बंधुआ मजदूरी और ट्रैफिकिंग से बचाए गए बच्‍चों को रखा जाता है. खास बात यह है कि इन बच्‍चों के भविष्‍य को उज्ज्वल बनाने के मकसद से बाल आश्रम में ही इनके पढ़ने-लिखने, रहने व खेलने-कूदने की व्‍यवस्‍था की गई है. साथ ही कई तरह के ट्रेनिंग कोर्स भी हैं, जिन्‍हें कर बच्‍चे अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं. 


इंजीनियरिंग में एडमिशन लिया
6 नवंबर, 2013 को यहां आने के बाद नरेंद्र की जिंदगी ने एक नया मोड़ ले लिया. वह कहते हैं, बाल आश्रम में एक इलेक्ट्रिक ट्रेनिंग सेंटर भी है, जहां उन्‍होंने कई इलेक्ट्रिक टूल्‍स और यूनिट्स के बारे में सीखा. इससे मुझे बहुत मदद मिली और इंजीनियरिंग की तरफ मेरा रुझान और अधिक गहरा गया. यही कारण रहा कि नरेंद्र ने 12वीं की पढ़ाई साइंस से की और इंजीनियरिंग में एडमिशन लिया. वह कहते हैं,  नियमित पढ़ाई के अलावा मैं दूसरी चीजों में भी रुचि लेता हूं जैसे कि डांस और ड्रामा. जिला स्‍तर की प्रतियोगिताओं में कई पुरस्‍कार जीत चुके नरेंद्र को क्रिकेट सबसे ज्यादा पसंद है.