नई दिल्ली: भारत ने कूटनीति और सैन्य शक्ति के दम पर चीन की सेना को तो पीछे धकेल दिया है लेकिन क्या भारत कोरोना वायरस को भी इसी तरह से पीछे धकेल पाएगा? ये सवाल हम इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि भारत में कोरोना वायरस का संक्रमण तेजी से फैल रहा है और इसके सामने बड़े बड़े महानगरों की स्वास्थ्य व्यवस्थाएं कमजोर साबित हो रही हैं और कोरोना वायरस किसी व्यक्ति की जान ले या ना ले, प्राइवेट अस्पतालों में इसके इलाज का खर्च कई परिवारों की जान जरूर ले लेगा. 


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हम आपको बताएंगे कि कैसे दिल्ली जैसे शहर के प्राइवेट अस्पतालों में कोरोना वायरस के इलाज पर 15 से 20 लाख रुपए तक का खर्च आ सकता है. लेकिन पहले ये समझ लीजिए कि कोरोना वायरस के मामले में देश की और इन बड़े शहरों की स्थिति क्या है?


इस समय भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण का शिकार हो चुके लोगों की संख्या 2 लाख 66 हजार से ज्यादा हो चुकी है और करीब साढ़े सात हजार लोगों की मौत हो चुकी है. संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में भारत अब, दुनिया में पांचवे नंबर पर पहुंच गया है. 


महाराष्ट्र जैसा राज्य तो इस मामले में चीन को पीछे छोड़ चुका है और अब दिल्ली के बारे में भी आशंका जताई जा रही है कि आने वाले कुछ ही दिनों में दिल्ली में संक्रमितों की संख्या लाखों में हो जाएगी. 


दिल्ली में कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की कुल संख्या करीब तीस हजार हो गई है. इनमें से करीब 11 हजार से ज्यादा मरीज इलाज के बाद स्वस्थ हो चुके हैं और 17 हजार 700 से ज्यादा मामले अभी एक्टिव हैं, यानी उनका इलाज चल रहा है. दिल्ली में कोरोना वायरस से अब तक 874 लोगों की मौत हो चुकी है. 


डराने वाली बात ये है कि दिल्ली में पॉजिटिविटी रेट यानी टेस्ट होने पर कोरोना संक्रमित होने की दर भी बढ़ रही है. 
आंकड़ों के मुताबिक पिछले 24 घंटे में दिल्ली में 3700 लोगों का कोरोना टेस्ट हुआ, इनमें से 1007 लोग कोरोना संक्रमित पाए गए यानी जितने लोगों ने टेस्ट कराया उनमें से 27 प्रतिशत लोग संक्रमित पाए गए. पिछले हफ्ते की बात करें तो ये पॉजिटिविटी रेट करीब 26 प्रतिशत था.


ये आंकड़ा बाकी राज्यों की तुलना में बहुत ज्यादा है, दिल्ली में फिलहाल 12 से 13 दिनों में संक्रमितों की संख्या दोगुनी हो रही है. दिल्ली में कोरोना के हॉट स्पॉट्स की संख्या भी बढ़कर 183 हो चुकी है. इस महीने की पहली तारीख को छोड़ दें तो इस महीने दिल्ली में अब तक प्रतिदिन एक हजार से ज्यादा नए मामले सामने आए हैं. 


अगर संक्रमण की रफ्तार यही रही तो आज से 5 दिन बाद यानी 14 जून तक दिल्ली में कोरोना संक्रमण के कुल मामले 44 हजार से ज्यादा हो जाएंगे. ये आंकड़ा, 30 जून तक बढ़कर एक लाख होने की आशंका है. 


देखें DNA- 



इसी रफ्तार से 15 जुलाई तक दिल्ली में कोरोना वायरस से संक्रमण के सवा लाख मामले सामने आ चुके होंगे और 31 जुलाई तक मरीजों की संख्या बढ़कर साढ़े पांच लाख तक पहुंच सकती है. और तब दिल्ली के अस्पतालों में इलाज के लिए कम से कम 80 हजार हॉस्पिटल बेड्स की आवश्यकता होगी. 


यानी करीब सवा महीने में दिल्ली जैसा शहर कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले में दुनिया के कई देशों को पीछे छोड़ चुका होगा.


दिल्ली में फिलहाल सौ से ज्यादा अस्पतालों में कोरोना संक्रमित मरीजों के इलाज की सुविधा है. जिनमें सिर्फ़ आठ सरकारी अस्पताल हैं. सरकारी अस्पतालों में तो इस महामारी का इलाज मुफ्त है जबकि निजी अस्पतालों में मरीज को इलाज का खर्च खुद उठाना होता है. लेकिन क्या आपको पता है कि कोरोना के एक मरीज के इलाज के लिए निजी अस्पताल कितना पैसा वसूल रहे हैं?


एक कोरोना संक्रमित मरीज के इलाज का औसत खर्च कितना हो सकता है. इसे जानने के लिए हमने दिल्ली के निजी अस्पतालों में इलाज करवा चुके मरीजों से बात की है. जिससे हमें कुछ महत्वपूर्ण बातें पता चली हैं. इन जानकारियों के मुताबिक एक मरीज को चार से आठ लाख रुपए एडवांस के रूप में जमा कराने होते हैं. 


दो से तीन बेड के वार्ड में प्रतिदिन का शुल्क 40 हजार रुपए तक हो सकता है. जबकि सिंगल कमरे का किराया 50 हजार रुपए प्रतिदिन तक होता है. 


इसी तरह अगर किसी की हालत ज्यादा गंभीर हो जाए और उसे ICU में भर्ती कराना पड़े तो इसके लिए औसतन 75 हजार रुपए प्रतिदिन देने होंगे. और अगर मरीज को वेंटिलेटर पर रखना पड़े, तो ICU में एक दिन का खर्च एक लाख रुपए से भी ज्यादा का हो सकता है. 


यानी अगर किसी मरीज को 10 दिन भी प्राइवेट अस्पताल में बिताने पड़े तो उसे कम से कम 5 से 6 लाख रुपए तो खर्च करने ही होंगे. इसके अलावा PPE Kits का खर्च भी मरीजों से ही वसूला जाता है. और अगर किसी मरीज को कुछ दिनों के लिए वेंटिलर की जरूरत पड़ गई तो इसका खर्च 10 लाख या उससे ज्यादा भी हो सकता है. इसके अलावा दवाओं का खर्च और दूसरे खर्चों को इसमें जोड़ लिया जाए तो औसतन एक मरीज को 15 से 20 लाख रुपए भी खर्च करने पड़ सकते हैं. 


अब सवाल ये है कि जिस बीमारी की कोई दवा अभी तक नहीं बनी है, उस बीमारी के इलाज के नाम पर लाखों रुपए क्यों वसूले जा रहे हैं. दिल्ली सरकार ने खुद माना है कि दिल्ली के निजी अस्पतालों में हॉस्पिटल बेड्स की ब्लैक मार्केटिंग हो रही है. 


दिल्ली के प्राइवेट अस्पतालों का ये रवैया तब है जब दिल्ली सरकार दावा कर रही है कि दिल्ली में कोरोना वायरस का सामुदायिक संक्रमण यानी कम्यूनिटी ट्रांसमिशन शुरु हो चुका है. हालांकि केंद्र सरकार ने दिल्ली में सामुदायिक संक्रमण की बात से इनकार किया है. 


सामुदायिक संक्रमण तब शुरू होता है जब संक्रमण के स्रोत का पता ना लगाया जा सके. यानी ऐसा तब होता है जब ये पता ना किया जा सके कि किसी व्यक्ति को किससे संक्रमण हुआ है. 


इस चरण में पहुंचने के बाद संक्रमण को रोकना बहुत मुश्किल हो जाता है. दिल्ली सरकार का कहना है कि दिल्ली में संक्रमण के करीब पचास प्रतिशत मामलों में ये पता नहीं चल पा रहा कि इसकी शुरुआत किस व्यक्ति से हुई थी. लेकिन केंद्र सरकार के मुताबिक, देश अभी कोरोना के स्थानीय संक्रमण यानी लोकल ट्रांशमिशन के चरण में है, और सामुदायिक संक्रमण अभी शुरू नहीं हुआ है. 


और अगर संख्या की बात करें तो मुंबई के बाद दिल्ली, देश का दूसरा ऐसा शहर है, जहां संक्रमण के सबसे ज्यादा मामले सामने आए हैं, और अगर संक्रमण की रफ्तार नहीं थमी तो अगले दस दिनों में मुंबई को पीछे छोड़कर, दिल्ली Covid 19 के मरीजों की संख्या के मामले में पहले नंबर पर आ जाएगी. 


हालांकि इस समय मुंबई की स्थिति दिल्ली से ज्यादा खराब है. मुंबई ने संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में चीन के उस शहर वुहान को भी पीछे छोड़ दिया है जहां से कोरोना वायरस की शुरुआत हुई थी. 


मुंबई में Covid-19 के मरीजों की संख्या 51 हजार से ज्यादा हो चुकी है. जबकि वुहान मे अब तक कुल 50 हजार 340 मामले सामने आए हैं. 


मुंबई Covid 19 के 50 हजार से ज्यादा मरीजों वाला देश का इकलौता शहर है. जहां अब तक 1700 से ज्यादा लोगों की जान गई है. 


यानी कोरोना के खिलाफ जंग में दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर, मिसाल पेश कर सकते थे. लेकिन अब यही शहर संक्रमण को रोक नहीं पा रहे हैं और इन शहरों की स्वास्थ्य सेवाओं ने वायरस के सामने घुटने टेक दिए हैं. इन बड़े बड़े शहरों में ना तो मरीजों के लिए हॉस्पिटल्स बेड्स बचे हैं और ना ही इन शहरों में कोरोना वायरस का इलाज कराना सस्ता है. हमने देश की राजधानी दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं पर एक ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की है. ये रिपोर्ट देखकर आप समझ जाएंगे कि कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई में दिल्ली और दिल्ली जैसे दूसरे शहर कहां खड़े हैं. 


कोरोना वायरस से चार कदम आगे चलने का दावा करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल खुद आइसोलेशन में हैं, और दिल्ली में बिस्तरों की कोई कमी ना होने देने का दावा करने वाले उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया कह रहे हैं कि दिल्ली में अब कोरोना, आउट ऑफ कंट्रोल हो चुका है. 


ये वही केजरीवाल सरकार है, जो कोरोना के खिलाफ अपने इंतजामों के लिए खुद अपनी ही पीठ थपथपाते नहीं थक रही थी. लेकिन उनके दावों की हकीकत जाननी हो तो दिल्ली सरकार के किसी भी अस्पताल के बाहर चले जाइए.


कोरोना के इलाज के लिए दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल, एलएनजेपी की तस्वीरें डराने वाली हैं. इलाज के इंतजार में रोते बिलखते मरीजों को कोरोना पहले मार डालेगा या सिस्टम इनकी जान ले लेगा, ये कहा नहीं जा सकता. 


60 साल के एक बुजुर्ग कोरोना टेस्ट के लिए इतने धक्के खा चुके हैं कि मरने की गुहार लगा रहे हैं. पहले प्राइवेट अस्पताल ने लक्षण देखकर ही लौटा दिया और यहां तो अंदर घुसने ही नहीं दिया जा रहा. 


जरा सोचिए, आप अपने परिवार के किसी कोरोना संक्रमित मरीज को किसी तरह अस्पताल में भर्ती करवा दें और सुबह आपसे ये कहा जाए कि मरीज को अब श्मशान में ढूंढिए तो आपके ऊपर क्या बीतेगी. महेश चंद्र के परिवार के साथ ऐसा ही हुआ है. 


ये तस्वीरें बता रही हैं कि देश की राजधानी में इलाज की व्यवस्था लाइलाज हो गई है. दिल्ली सरकार के खुद के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में कोरोना मरीजों का इलाज करने वाले अस्पतालों में मौजूदा बिस्तर और वेंटिलेटर, आधे से भी ज्यादा भर चुके हैं. दिल्ली सरकार ने पिछले दिनों अस्पतालों में बिस्तर और वेंटिलेटर की स्थिति के ताजा आंकड़े बताने वाली एक वेबसाइट लॉन्च की थी जिसके मुताबिक फिलहाल दिल्ली के अस्पतालों में कोविड-19 के सिर्फ 8862 बिस्तर हैं और इनमें से भी आधे से ज्यादा, करीब 4672 भर चुके हैं. 


दिल्ली के अस्पतालों में कुल 509 वेंटिलेटर्स हैं जिनमें से इस वक्त सिर्फ 190 खाली हैं. सोचिए, अगर 31 जुलाई तक वाकई, दिल्ली में कोरोना के साढ़े पांच लाख केस सामने आ गए, तो दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं का क्या हाल होगा? और अगर कोई ये सोच रहा है कि वो पैसों के दम पर इलाज करवा लेगा, तो भी इस बात की गारंटी नहीं है कि प्राइवेट अस्पताल में एडमिशन मिल जाएगा. फिलहाल स्थिति ये है कि बेड्स भी बिना सिफारिश नहीं मिल रहे हैं. 


संजय अरोड़ा अपनी कोरोना संक्रमित पत्नी के इलाज के लिए गंगाराम अस्पताल पहुंचे थे, जहां अपनी पत्नी को भर्ती नहीं करवा पाए तो एलएनजेपी अस्पताल पहुंच गए.  यहां घंटों सिस्टम से जूझते रहे. यानी ये प्राइवेट और सरकारी दोनों सिस्टम को झेल चुके हैं. लेकिन अपनी पत्नी को नहीं बचा पाए. अपनी पत्नी का पार्थिव शरीर लेने आए संजय के लिए सिस्टम का नकारापन यहीं पर खत्म नहीं हुआ, शव भी गलत थमा दिया गया. 


50 साल के मुशीर अहमद को सर गंगाराम अस्पताल के कोविड-19 वॉर्ड में 5 जून को भर्ती कराया गया. मंगलवार सुबह मुशीर अहमद की मृत्यु हो गई. परिवार का आरोप है कि अस्पताल अब शव देने से इंकार कर रहा है और परिवार पर ये दबाव बनाया जा रहा है कि पहले वो बिल का भुगतान करें, जिसके बाद ही शव सौंपा जाएगा.  अस्पताल का बिल है, 2 लाख 56 हजार 882 रुपए. इससे पहले अस्पताल एक लाख बीस हजार रुपए पहले ही ले चुका था. कई अस्पतालों ने तो पहले ही रेट लिस्ट की जानकारी तक चिपका दी है ताकि बाद में पैसे वसूलने में दिक्कत ना हो. 


डॉक्टर उपेंद्र कौल दिल्ली के निजी अस्पताल में कार्डियोलॉजिस्ट हैं. मरीजों के इलाज के दौरान इन्हें कोरोना संक्रमण हो गया. वो खुद मानते हैं कि दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाएं, कोरोना को काबू करने में फेल हो रही हैं, और निजी अस्पतालों में इलाज हर किसी के बस की बात नहीं है.


उपेंद्र का कहना है, 'हेल्थ केयर सिस्टम पर बहुत दबाव है लेकिन राजनीति की वजह से लोग इसे मानते नहीं हैं जबकि इस वक्त आपको सच्चाई मान लेनी चाहिए कि हमारे पास किन-किन चीजों की कमी है. अस्पतालों में लोगों को बेड नहीं मिल रहे हैं. लोग देखते हैं कि अस्पताल में बेड है लेकिन जब वहां पर जाते हैं तो बैड नहीं मिलता और कई बार मरीज की मौत तक हो जाती है. प्राइवेट अस्पतालों में खर्च इसलिए ज्यादा है क्योंकि पीपीई किट पहनकर नर्स या बाकी लोग 10 घंटे तक काम नहीं कर सकते इसलिए हेल्थ वर्कर्स की शिफ्ट को छोटा किया गया है और पीपीई गेट्स का खर्चा भी बढ़ गया है.'


ये कहानियां सिर्फ दिल्ली के अस्पतालों की नहीं है, मुंबई समेत लगभग हर महानगर का यही हाल है. जो मेट्रो सिटी कहलाते हैं. जहां लोग बेहतर सुविधाएं मिलने की उम्मीद करते हैं. लेकिन कोरोना ने इन महानगरों की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के खोखलेपन को उजागर कर दिया है. सोचिए, जब आने वाले वक्त में कोरोना के केस बढ़ते जाएंगे, तो इन महानगरों का क्या हाल होगा?


प्राइवेट अस्पतालों में इतना महंगा इलाज तब हो रहा है जब भारत में औसत प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 11 हजार 254 रुपए प्रति महीना है. जिस देश की 21 प्रतिशत आबादी अब भी गरीबी रेखा के नीचे रहती है उस देश के अस्पतालों को अपना ये रवैया हर हाल में बदलना चाहिए. 


जब दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों का ये हाल है, तो सोचिए, देश के बाकी शहरों का क्या हाल होगा? ग्रामीण इलाकों की स्थिति तो और भी खराब है. देश के ग्रामीण इलाके अब कोरोना वायरस का नया केंद्र बनते जा रहे हैं और अगर इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो स्थिति बहुत ज्यादा बिगड़ सकती है.


बात सिर्फ हॉस्पिटल बेड्स और वेंटिलेटर्स की नहीं है, डॉक्टरों और नर्सों की कमी भी एक बड़ी चुनौती है. नीति आयोग ने वर्ष 2019 में एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसके मुताबिक देश के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों और नर्सों की संख्या जरूरत से बहुत कम है. 


देश के जिला अस्पतालों में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के 80 प्रतिशत से ज्यादा पद खाली हैं. दिल्ली समेत छह राज्यों के सरकारी अस्पतालों में मेडिकल ऑफिसर्स के 40 प्रतिशत से ज्यादा पद खाली हैं. सरकारी अस्पतालों में 40 प्रतिशत मेडिकल स्टाफ के पद खाली हैं. लेबोरेटरी टेक्नीशियन के भी 40 प्रतिशत पद खाली हैं. नर्स और फार्मासिस्ट की संख्या भी जरूरत से 16 प्रतिशत तक कम है. 


नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 60 हजार से ज्यादा छोटे-बड़े अस्पतालों में करीब 10 लाख बेड्स हैं, जबकि मरीजों की संख्या को देखते हुए देश में 20 लाख हॉस्पिटल बेड्स की जरूरत है. 


हमने इस समस्या का समाधान ढूंढने की भी कोशिश की. इस दौरान हमें पता चला कि रातों रात स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना आसान नहीं है. दिल्ली और मुंबई ही नहीं दुनिया के किसी भी शहर के लिए ये एक बहुत बड़ी चुनौती है. न्यूयॉर्क जैसे शहरों में भी हॉस्पिटल बेड्स कम पड़ने लगे थे. स्पेन और इटली जैसे देशों के अस्पतालों में भी Covid-19 से मारे गए मरीजों के शव रखने की जगह नहीं बची थी. इन देशों में सैंकड़ों शवों को सड़क पर ही रख दिया गया था. ये कहते हुए हमें बहुत दुख तो हो रहा है लेकिन मौजूदा स्थितियों को देखकर लगता है कि दिल्ली मुंबई समेत देश के कई शहरों में भी ऐसे हालात पैदा हो सकते हैं. हो सकता है कि तब डॉक्टरों को ये तय करना पड़े कि किसकी जान बचानी है और किसकी नहीं है, क्योंकि जिन देशों का जिक्र हमने किया उनमें भी यही स्थिति आ गई थी. इन देशों ये हाल तब था जब ये देश लॉकडाउन में थे. और ऐसी स्थिति लॉकडाउन से बाहर आते भारत के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती.