नई दिल्‍ली: आज आपको ये भी समझना चाहिए कि कैसे भारत से लगभग 12 हजार किलोमीटर दूर कनाडा भारत के खिलाफ खालिस्तानी प्रोपेगेंडा का एपिसेंटर बन गया है.  ये राजस्थान के पारंपरिक खेल कठपुतली नृत्य की तरह ही है, जिसमें आंदोलन कर रहे किसान विदेशी ताकतों की कठपुतली बन कर रह गए हैं और अब इन्हीं ताकतों के पास किसान आंदोलन का रिमोट कंट्रोल है. 


कनाडा के डबल स्‍टैंडर्ड को समझिए 


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आज आपको किसानों पर कनाडा के डबल स्‍टैंडर्ड को भी समझना चाहिए. आपको याद होगा कुछ दिनों पहले कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने भारत में चल रहे किसान आंदोलन  का समर्थन किया था और कहा था कि कनाडा शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के अधिकारों के बचाव में खड़ा है. लेकिन जब इसी आंदोलन के दौरान 26 जनवरी को दिल्ली में हिंसा भड़की तो जस्टिन ट्रूडो ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और न ही उन्होंने तब ऐसा करने वाले किसानों की निंदा की. सोचिए ये लोग अपने हितों के लिए कैसे किसी देश के लोगों को उकसाते हैं. 


कनाडा के डबल स्‍टैंडर्ड का एक और उदाहरण देखिए. एक तरफ जहां जस्टिन ट्रूडो भारत में चल रहे किसान आंदोलन का समर्थन कर चुके हैं तो वहीं दूसरी तरफ कनाडा वर्षों से World Trade Organisation की बैठकों में भारतीय किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी का विरोध करता आया है. 


यही नहीं जुलाई 2019 में कनाडा ने भारत में किसानों को चावल और गेहूं का ज्‍यादा MSP देने का विरोध किया था और इस पर WTO के सामने भारत की छवि खराब करने की कोशिश की थी. सोचिए, भारत में आंदोलन कर रहे किसानों को सबसे ज्‍यादा डर किस बात का है. यही कि सरकार के नए कृषि कानूनों से फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था खत्म हो जाएगी. अब सवाल है कि अगर कनाडा भारत में चल रहे किसान आंदोलन के साथ है, तो वो WTO में MSP पर भारत का विरोध क्यों करता है? हमें लगता है कि इस सवाल का जवाब देने की जरूरत नहीं, क्योंकि ये सवाल अपने आप में पूर्ण है और कनाडा की सच्चाई को भी दुनिया के सामने लाता है. 



अमेरिका ने भारत को क्‍यों दी सलाह?


अब आपको कनाडा के पड़ोसी देश अमेरिका के बारे में बताते हैं, जिसने कल भारत में चल रहे किसान आंदोलन पर पहली बार अपनी प्रतिक्रिया दी और भारत सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों की तारीफ की, तो ये अमेरिका से आई प्रतिक्रिया का एक पक्ष है. दूसरा पक्ष ये है कि अमेरिका ने कृषि कानूनों का समर्थन करने के साथ ही भारत को ये सलाह दी कि उसे इंटरनेट सेवाएं बंद नहीं करनी चाहिए. 



हमें लगता है कि अमेरिका 6 जनवरी को वॉशिंगटन डीसी में हुई हिंसा को भूल गया जब पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रंप के समर्थकों ने वहां की संसद कैपिटल हिल पर हमला कर दिया था और इन उपद्रवियों से निपटने के लिए अमेरिका के सैनिकों को गोलियां चलानी पड़ी थीं.  इस हिंसा में 5 लोगों ने अपनी जान गंवा दी थी. लेकिन अब 26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा को याद कीजिए, जब ट्रैक्टर परेड के दौरान पुलिस के जवानों को कुचलने की कोशिश की गई. उन पर पत्थर बरसाए गए और लाठियां भी चलाई गईं. हिंसा में तब दिल्ली पुलिस के 394 जवान घायल हुए थे. लेकिन पुलिस ने किसी भी किसान पर कार्रवाई नहीं की क्योंकि, हमारे जवानों के हाथ किसान पर उठने में कांप रहे थे.  लेकिन शायद अमेरिका ये बात नहीं समझ सकता.