नई दिल्‍ली:  भारत में हम अक्सर एक शब्द सुनते हैं, अर्बन नक्सल. टूलकिट वाले आंदोलनजीवियों के युग में इन्हें अर्बन गोरिल्‍ला कहा जा रहा है. पर शहरों में रहकर नक्सलवाद या गोरिल्‍ला युद्ध करने वाले ये लोग कौन हैं और इन्हें कौन बनाता है ये सवाल शायद आपके मन में भी आता होगा. हमने आज इस अर्बन नक्सल का एक DNA टेस्ट किया है. इसके लिए हमारी टीम पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव गई थी. 


नक्‍सलवाद की शुरुआत


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आप सबने इतिहास की किताबों में पढ़ा होगा और अपने बुजुर्गों से सुना भी होगा कि वर्ष 1962 में चीन ने हमारे देश पर हमला किया और फिर युद्ध में हमें हरा दिया. आपमें से कुछ लोगों को शायद ये भी पता हो कि युद्ध से पहले और युद्ध के दौरान हमारे ही देश के कुछ लोग वामपंथी विचारधारा के नाम पर चीन का समर्थन कर रहे थे और भारत का विरोध. इन लोगों की इच्छा तो शायद ये थी कि चीन, भारत पर कब्जा कर ले. पर जब ये नहीं हुआ तो इन्होंने निराश होकर युद्ध से 5 साल बाद 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से एक ऐसे आंदोलन की शुरुआत कर दी जिसके पीछे People's Republic of China के संस्थापक माओत्से तुंग का विचार था. 


माओत्से तुंग का मानना था कि 'राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है'. वो कहते थे कि 'राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति'.


आज बंदूक की जगह टूलकिट का इस्‍तेमाल


भारत में माओ के विचार को लागू करवाने वाले नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल थे, जो ये मानते थे कि गरीबों को उनका हक दिलाने के लिए सरकार का बंदूक और बारूद से विरोध होना चाहिए, उसे बदल देना चाहिए. नक्सलवाद, माओवाद, अर्बन नक्सल, अर्बन गोरिल्‍ला ये सब आज भी बंदूक और बारूद वाले विचार से भरे हुए हैं. बदलाव बस ये आया है कि वो जंगल की जगह शहरों में आ गए हैं और बंदूक की जगह उनके हाथ में टूलकिट है, ट्विटर है. 


पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में चीन के नेता माओत्से तुंग की मूर्ति लगी है. आपको आश्चर्य होगा कि भारत के गांव में दुश्मन देश चीन के नेता की मूर्ति क्यों लगी है. इससे ज्यादा आप तब चौंकेंगे जब आपको इनके विचार पता चलेंगे. इनका मानना था कि 'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है' और इसी विचारधारा से प्रभावित होकर नक्सलबाड़ी गांव से हिंसक आंदोलन के जरिए भारत में सत्ता को बदलने का आंदोलन 1967 में शुरू किया गया था. 


बदल रही नई पीढ़ी की सोच


नक्सलबाड़ी से जिस हिंसक नक्सलवाद, माओवाद की शुरुआत हुई. उसे बाद में देश के लिए आंतकवाद से ज्यादा खतरनाक माना गया. इस गांव में आज भी हिंसक राजनीति वाले नेताओं की मूर्तियां लगी हैं. पुरानी पीढ़ी इन नेताओं की विचारधारा को ईश्वर का कथन मानती थी. लेकिन नई पीढ़ी के लिए ये मूर्तियां कोई विचार नहीं, बल्कि मात्र पत्थर हैं. 


यहां के स्‍टूडेंट्स कहते हैं, नक्सल आंदोलन के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं. बंदूक नहीं कम्प्यूटर के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं. हम चाहते हैं कि नक्सलबाड़ी आगे बढ़े. देश आगे बढ़ रहा है तो कम्‍प्‍यूटर के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं. 


नई पीढ़ी को बम, बंदूक नहीं, कम्‍प्‍यूटर चाहिए.उन्हें डर नहीं, शांति और आगे बढ़ने के मौके चाहिए.


यहां कोई टीचर बनना चाहता है, कोई डॉक्‍टर, कोई इंजीनियर तो किसी का सपना एयर होस्‍टेस बनने का है. युवाओं का कहना है कि बहुत बदलाव हुआ है. अब सब ठीक है. अगर मौका मिलगा तो हम देश के लिए कुछ करेंगे.



नई पीढ़ी की सोच ने पुरानी पीढ़ी को ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि सोच में बदलाव का समय आ गया है. भले ही उन्होंने नक्सवाद की शुरुआत का दर्द झेला हो.


नक्सलबाड़ी से जब नक्सलवाद की शुरूआत हुई तो 88 वर्षीय पवन सिंघो की उम्र 35 वर्ष थी, इनके विचारों में आज भी नक्सलवाद का प्रभाव नजर आता है. लेकिन वक्त बदल रहा है. सरकार विरोधी गतिविधियों की वजह से कभी चर्चा में रहे नक्सलबाड़ी के युवा अब सरकारी नौकरी की तैयारी करते नजर आते हैं.


इनका कहना है कि हमें बंदूक नहीं, कम्‍प्यूटर चाहिए. आर्मी में जाना चाहते हैं. सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे हैं और अपने नक्सलबाड़ी को बदलना है.


नक्सलबाड़ी के ही युवा अब देश की सुरक्षा में भी तैनात हैं. ये सशस्त्र सीमा बल में अपनी सेवाएं दे रहे हैं.  ये बदलते नक्सलबाड़ी की तस्वीर है. ये देशभक्ति की सबसे बड़ी तस्वीर है, हमारी आपकी रक्षा में 24 घंटे तैनात रहते हैं. 


भीषण हिंसा देख चुके नक्सलबाड़ी के लोग अब शांति चाहते हैं...


भीषण हिंसा देख चुके नक्सलबाड़ी के लोग अब शांति चाहते हैं. उनका मानना है कि शांति रहेगी तो सब हासिल हो सकता है. 


ज़मीदारों की मनमर्ज़ी, ज़मीन से आम मज़दूरों को बेदखल करना,  उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा करना, खेती से उनको अलग कर देना, अत्याचार और अन्याय कुछ ऐसी वजहें थी जिसकी वजह से नक्सलबाड़ी से नक्सलवाद की शुरूआत हुई. लेकिन अब यहां के लोग बदलाव चाह रहे हैं. इस गांव के लोग बड़े शहरों में नौकरी कर रहे हैं, खेती कर रहे हैं. अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए गांव के लोग काम कर रहे हैं. बुलेट को छोड़कर बैलेट की तरफ आगे बढ़ रहे हैं क्योंकि, देश की तरक्की के लिए लोकतंत्र बहुत ज़रूरी है. 


2021 के नक्सलबाड़ी की सोच अलग है. वो राजनीतिक विचारधाराओं की लड़ाई में उलझना नहीं चाहती. वो ये जानती है कि उनके जीवन में आया सकारात्मक बदलाव देश की उन्नति और उनके गांव की उन्नति का एकमात्र रास्ता है.


नक्सलबाड़ी रेलवे स्टेशन के साइन बोर्ड के बैकग्राउंड में नक्सलबाड़ी अब बदलाव चाहता है, शांति चाहता है, उन्नति चाहता है और देश का विकास चाहता है. नक्सलबाड़ी का युवा शिक्षक, आईएएस, आईपीएस, इंजीनियर, डॉक्टर बनना चाहता है और देश के लिए कुछ करना चाहता है. नक्सलबाड़ी का युवा बम गोला बारूद नहीं, बल्कि कंप्यूटर और टेक्नोलॉजी से नक्सलबाड़ी की पहचान चाहता है और यही बदलते भारत के साथ साथ बदलते नक्सलबाड़ी की सबसे बड़ी तस्वीर है.