DNA ANALYSIS: क्या आपने देखी भारत के नए राष्ट्रवाद की ये तस्वीर?
15 अगस्त और 26 जनवरी के मौके पर तिरंगा लहराने से राष्ट्रवाद के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती. पॉपकॉर्न खाते हुए देशभक्ति वाली फिल्में देखना राष्ट्रवाद नहीं है. अपने देश की वैक्सीन को शक की नज़रों से देखना भी राष्ट्रवाद नहीं है. अपनी गाड़ी पर जाति का प्रदर्शन करना राष्ट्रवाद नहीं है. राष्ट्रवाद का कोई Menu Card नहीं होता.
नई दिल्ली: अब हम एक पिता की तरफ से देश की महिला शक्ति को किए गए सलाम का विश्लेषण करेंगे. पूरी दुनिया में नायकों को HEROES कहा जाता है. इस शब्द में लगा He पुरुषों का प्रतीक है. लेकिन ये दुनिया सिर्फ पुरुष नायकों के दम पर नहीं चलती, महिलाओं की भी इसमें बड़ी भूमिका है, जिन्हें आप SHEROES कहते हैं. ऐसी ही एक नायिका को जब उसके पिता ने सलाम किया तो ये तस्वीर पूरे देश में चर्चा का विषय बन गई.
नए राष्ट्रवाद का दृश्य
आंध्र प्रदेश के तिरुपति में इन दिनों Police Meet कार्यक्रम के दौरान एक ऐसा दृश्य देखने को मिला, जिसे आप चाहें तो नए भारत के नए राष्ट्रवाद का दृश्य भी कह सकते हैं. इस आयोजन में तिरुपति के पुलिस इंस्पेक्टर श्याम सुंदर ने गुंटूर ज़िले की डीएसपी जे.सी. प्रसांति को सैल्यूट किया. लेकिन ये सिर्फ एक जूनियर ऑफिसर का सीनियर ऑफिसर को किया गया सैल्यूट नहीं था, बल्कि ये पिता द्वारा बेटी की मेहनत को किया गया सलाम था. जे.सी. प्रसांति श्याम सुंदर की बेटी हैं.
श्याम सुंदर जब बड़े अधिकारियों का स्वागत कर रहे थे, तभी उनकी बेटी से उनका परिचय हुआ. DSP बेटी को देख कर पिता श्याम सुंदर का सीना गर्व से चौड़ा हो गया. श्याम सुंदर के लिए ये पल काफ़ी भावुक था. उन्होंने अपनी बेटी को सम्मान देते हुए सैल्यूट किया और इस तरह ये तस्वीर राष्ट्रवाद का नया प्रतीक बन गई.
असल में सच्चा राष्ट्रवाद
किसी भी माता-पिता के लिए उसकी संतान से बड़ी पूंजी कोई नहीं होती और जब वही संतान अपने माता पिता के लिए आदर्श बन जाती है तो इसे ही नया राष्ट्रवाद कह सकते हैं. 15 अगस्त और 26 जनवरी के मौके पर तिरंगा लहराने से राष्ट्रवाद के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती. पॉपकॉर्न खाते हुए देशभक्ति वाली फिल्में देखना राष्ट्रवाद नहीं है. अपने देश की वैक्सीन को शक की नज़रों से देखना भी राष्ट्रवाद नहीं है. अपनी गाड़ी पर जाति का प्रदर्शन करना राष्ट्रवाद नहीं है. राष्ट्रवाद का कोई Menu Card नहीं होता. राष्ट्रवाद की कोई लिस्ट नहीं होती, जिसे पूरा करके आप राष्ट्रीयता की भावना को साबित कर सकते हैं. नए भारत का नया राष्ट्रवाद अपने देश के वैज्ञानिकों पर भरोसा करना है. AIIMS, IIT और ISRO जैसी संस्थाओं की सफलता पर गर्व करना नया राष्ट्रवाद है और आंध्र प्रदेश के तिरुपति में एक पिता द्वारा देश की आधी आबादी को किया गया सैल्यूट असल में सच्चा राष्ट्रवाद है, और इस नए राष्ट्रवाद का दृश्य आज आपको जरूर देखना चाहिए.
हमारे देश में कहा जाता है कि जहां नारियों की पूजा होती है, वहीं देवताओं का निवास होता है. लेकिन क्या सच में भारत में घर का काम काज संभालने वाली महिलाओं को ये सम्मान मिलता है? वो दिन के 24 घंटे और साल के 365 दिन जो मेहनत करती हैं, क्या इसके लिए उन्हें धन्यवाद दिया जाता है ?
ज्यादातर मामलों में इसका जवाब है नहीं लेकिन ये सम्मान जरूरी है और इसकी शुरुआत तमिलनाडु से हो सकती है.
कमल हासन का गृहिणियों को वादा
तमिलनाडु में इस साल विधान सभा चुनाव होने हैं, लेकिन उससे पहले अभिनेता से नेता बने कमल हासन ने एक बड़ा वादा किया है. उन्होंने कहा है कि अगर चुनावों में उनकी पार्टी को जीत मिलती है, तो वो राज्य में गृहिणियों को हर महीने सैलरी देने का काम करेंगे. हालांकि ये वेतन कितना होगा, इस पर अभी कोई जानकारी नहीं दी गई है.
जो महिलाएं घर पर रहती हैं, उन्हें समाज की तरफ से कई बार नजरअंदाज किया जाता है. उनके काम को उतना महत्व नहीं मिलता, जितना महत्व काम पर जाने वाले पुरुषों को दिया जाता है. इसलिए कमल हासन ने गृहिणियों को हर महीने सैलरी देने का वादा किया है.
जब कोई कंपनी बाजार में अपना प्रोडक्ट बेचने के लिए जाती है, तो उस प्रोडक्ट का एक Unique Selling Point होता है. ये वो खासियत होती है, जिससे एक प्रोडक्ट दूसरों से अलग बनता है. ऐसा लगता है कि कमल हासन ने भी यही किया है. उन्होंने गृहिणियों को वेतन देने का वादा करके इसे अपनी पार्टी का USP बना दिया है और कुछ लोग तो ये भी कह रहे हैं कि ये एक तरह का लालच है, जिसकी मदद से वो तमिलनाडु में गृहिणियों के वोट ख़रीदना चाहते हैं. हालांकि कुछ नेताओं ने इसके लिए कमल हासन की तारीफ़ भी की है.
इस घोषणा से अलग एक महत्वपूर्ण बात ये है कि घर संभालने वाली महिलाएं ये सब अपने परिवार के प्रति प्यार की वजह से करती हैं और प्यार की कोई कीमत नहीं होती. लेकिन फिर भी महिलाओं की मेहनत को सम्मान दिया जाना जरूरी है और उसके लिए कहीं न कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी क्योंकि, इससे एक बात तो स्पष्ट है अगर देश की गृहिणियों को उनके काम का मेहनताना मिलने लगे तो घर संभालने वाली ये महिलाएं देश को नई ऊंचाइयों पर ले जा सकती हैं.
गृहिणियों की छवि ऐसी क्यों बना दी गई?
हालांकि हमारे देश में शुरू से ही गृहिणियों की एक ऐसी छवि बनाई गई, जिसमें महिलाएं लाचार और बेबस नज़र आती हैं. ये सोच होती है कि गृहिणियां तो कुछ कर ही नहीं सकतीं. वो घर चला सकती है, गाड़ी नहीं. खाना बना सकती हैं, कोई कंपनी नहीं बना सकती. झाड़ू पोछा कर सकती हैं, लेकिन राजनीति नहीं कर सकतीं. ये विचार हमारे समाज में Permanent Marker से लिख दिए गए हैं, जिन्हें मिटाना बहुत मुश्किल है.
भारत में घर संभालनेवाली महिलाओं को कम करके आंका जाता है. चुनावों में अक्सर गृहिणियों को लुभाने के लिए मुफ्त साड़ियों का लालच दिया जाता है. उन्हें मुफ्त में चूल्हा और Gas Cylinder देने के वादे होते हैं. महिलाओं को मुफ्त में चप्पलें तक बांटी जाती हैं. यहां तक कि कुछ राज्यों में तो सिंदूर, मंगलसूत्र, सिलाई मशीन, मिक्सी और बसों में मुफ्त सफर का लालच भी दिया जाता है.
घर की देख रेख करने वाली महिलाओं से हमारे समाज को बहुत कम उम्मीदें होती है. कई राज्यों में गृहिणियों को हीन भावना से भी देखा जाता है. लेकिन कमल हासन ने इसमें बदलाव लाने की बात कही है.
तमिलनाडु में 22 लाख गृहिणियां हैं और ये महिलाएं सभी राजनीतिक पार्टिय़ों के लिए बड़ा वोट बैंक रही हैं. लेकिन सिर्फ घर संभालने वाली महिलाओं को तनख्वाह देकर उनका हक नहीं दिलाया जा सकता, बल्कि इसके लिए जरूरी है कि देश की आधी आबादी को वो पूरा हक मिले जिससे उन्हें वर्षों से दूर रखा गया है.
भारत में गृहिणियों की ताकत
भारत में गृहिणियों की ताकत को समझाने के लिए आज हमने कुछ रिसर्च की है और आंकड़ों में छिपी आधी आबादी की इस ताकत को आज पूरे देश को पहचानना चाहिए.
-भारत में महिलाओं की कुल आबादी लगभग 65 करोड़ है.
-जिनमें 15 करोड़ महिलाएं कामकाज करती हैं जबकि 20 करोड़ महिलाएं गृहिणी हैं
-यानी हमारे देश में 20 करोड़ महिलाएं आर्थिक रूप से अपने परिवारों पर निर्भर हैं.
-लेकिन क्या आपको पता है कि अगर ये महिलाएं नौकरी या व्यवसाय करें तो देश को कितना फायदा होगा?
-गृहिणियां हमारे देश की अर्थव्यवस्था में सालाना 3 लाख 90 हज़ार करोड़ रुपये का योगदान दे सकती हैं.
अगर महिलाओं को भी पुरुषों के बराबर वेतन मिलने लगे तो...
आप इसे एक और उदाहरण से भी समझ सकते हैं. भारत में कामकाजी महिलाओं की सालाना आय औसतन 28 हज़ार रुपये है, जबकि पुरुषों की औसतन सालाना आय एक लाख 28 हज़ार रुपये है. इस स्थिति के साथ भारत आज 2.7 लाख ट्रिलियन डॉलर्स की अर्थव्यवस्था है. अब अगर भारत में महिलाओं को भी पुरुषों के बराबर वेतन मिलने लगे तो भारत बहुत जल्दी पांच ट्रिलियन डॉलर्स वाली अर्थव्यवस्था बन सकता है.
अंग्रेज़ी की एक कहावत है- Stronger Women Builds Stronger Nations. हिन्दी में इसका अर्थ है, सशक्त महिलाएं एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण करती हैं. लेकिन हमारे देश में ये कहावत उल्टी नज़र आती हैं. हमारे देश में ये समझा जाता है कि घर संभालने वाली महिलाएं, देश के आर्थिक विकास के लिए कुछ नहीं कर सकतीं. लेकिन क्या ये दावा सही है. इस पर भी हमने आपके लिए कुछ आंकड़े निकाले हैं.
कामकाजी महिलाओं के मामले में भारत की स्थिति
कामकाजी महिलाओं के मामले में भारत 180 देशों के बीच बहुत बुरी स्थिति में हैं. भारत की अर्थव्यवस्था में कामकाजी महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 23 प्रतिशत है. ये पड़ोसी देश भूटान, नेपाल, चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका और यहां तक कि पाकिस्तान से भी कम है.
इतना ही नहीं भारत में 15 से 59 वर्ष के बीच की 60 प्रतिशत महिलाएं Full Time House Worker हैं. जाहिर है अगर इन महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिले, काम करने के समान अवसर मिलें तो ये देश को तरक्की के रास्ते पर ले जा सकती हैं. लेकिन ये दुर्भाग्य है कि हमारे देश में बहुत से लोगों की सोच इस रास्ते के बीच Speed Breaker का काम करती है.
भारत में किसी महिला का गृहिणी होना एक Thankless Job है और इस जॉब में गृहणियों के लिए छुट्टी की कोई व्यवस्था नहीं है. ये बात इसलिए भी दुखद है क्योंकि, हमारे ही देश में पुरुषों को हर 15 दिन में काम से एक छुट्टी मिल जाती है, जबकि पूरा जीवन घर संभालने वाली महिलाओं को इस तरह से एक छुट्टी भी नहीं मिलती.
छवि के पीछे फिल्मों की भी बड़ी भूमिका
भारत में महिलाओं की जो छवि है उसके पीछे फिल्मों का भी बहुत बड़ा रोल है. कुछ फिल्मों में तो महिलाओं की ताकत को दिखाया जाता है, लेकिन ज्यादातर में उन्हें बहुत दीन हीन और पुरुषों पर निर्भर महिला के रूप में ही दिखाया जाता है.
उदाहरण के लिए 1957 में आई फिल्म मदर इंडिया ने महिलाओं की एक अलग छवि लोगों के सामने रखी थी. ये एक सुपरहिट फिल्म थी, जो एक ऐसी गृहिणी पर आधारित थी जो कई मुश्किलों का सामना करते हुए अपने बच्चों का पालन पोषण करती है. अपनी मेहनत और लगन से भारतीय नारी की नई परिभाषा स्थापित करती है और फिर भी अंत में भले के लिए अपने गुंडे बेटे को स्वयं मार देती है.
इसी तरह आपको अभिनेत्री निरुपा रॉय भी याद होंगी. 70 और 80 के दशक में निरूपा रॉय ने कई फिल्मों में मां और एक गृहिणी का किरदार निभाया. फ़िल्मों में उनकी भूमिका को काफ़ी पसंद किया गया. उन्होंने अमिताभ बच्चन से लेकर शशि कपूर और जितेंद्र जैसे अभिनेताओं की मां का रोल निभाकर घर घर में अपनी पहचान बनाई. कहा जाता है कि तब निरुपा रॉय की फिल्में देखने के बाद देश में महिलाओं की स्थिति पर काफ़ी चर्चा भी हुई थी.
भारतीय सिनेमा में हमेशा से गृहिणियों के किरदार को जगह दी जाती रही है और कहा जाता है कि हमारा समाज महिलाओं को गृहिणियों के किरदार में अधिक पसंद करता है. आपको 2018 में आई फिल्म कबीर सिंह तो याद ही होगी. ये फिल्म एक ऐसी लड़की की कहानी पर आधारित थी, जो प्यार के लिए अपने आत्म सम्मान से समझौता कर लेती है, जो थप्पड़ खाने के बाद भी लड़के के साथ रिश्ता रखना चाहती है.
जापान से मिलती है ये सीख
कहते हैं कि फिल्में समाज का आइना होती हैं. जैसा समाज होता है, वैसी फिल्में होती हैं. महिलाओं को सम्मान कैसे दिया जाता है. ये बात भारत, जापान से भी सीख सकता है. जापान की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए वहां एक कार्यक्रम की शुरुआत की गई, जिसे Womenomics नाम दिया गया. इस कार्यक्रम की मदद से जापान में महिलाओं के योगदान को बढ़ाया गया और रोजगार के भी नए अवसर पैदा किए गए. भारत भी चाहे तो इस तरह की पहल कर सकता है. हालांकि हमारे देश की एक बड़ी समस्या है राजनीति. हमारे देश में हर विषय में राजनीति का प्रवेश हो जाता है और संभव है जब इस विषय पर भी कोई पहल हो तो उस पर भी राजनीति शुरू हो जाए.